शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले.
मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले.
तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी!
क्या सोचती है, मुझको सरे-दार खींच ले.
ज़ख्मी है संगबारियों से वो बुरी तरह,
बढ़कर कोई उसे पसे-दीवार खींच ले.
आजिज़ हूँ, सल्ब कर ले तू मुझसे मेरा शऊर,
अपनी इनायतों की ये रफ़्तार खींच ले.
तंग आ चूका वो अपनों के बेजा सुलूक से,
अच्छा है उसको महफ़िले-अग़यार खींच ले.
हो जाय इल्म जब के नहीं वो वफ़ा-शनास
कैसे न अपना हाथ तलबगार खींच ले.
इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.
ढीले पड़े हैं साज़, शिकस्ता हैं उंगलियाँ,
बेहतर है अब सितार से हर तार खींच ले।
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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.
लेजा हयात, गोशे में सिमटा है किस लिए.
इस ज़िन्दगी के हम कभी मालिक नहीं बने,
फिर ज़िन्दगी की हमको तमन्ना है किस लिए.
ये रिश्ते-नाते जितने भी हैं, सब हैं आरज़ी,
इंसान इनसे प्यार से लिपटा है किस लिए.
वैसे ही जल रहा हूँ, जलाती है और क्यों,
दुनिया! ये तेरी हरकते-बेजा है किस लिए.
बाज़ार में सजी हुई हर जिन्स की तरह,
हम भी थे, हमको तू ने खरीदा है किस लिए.
तेरे बताये रास्ते पर चल रहा था मैं,
मंज़िल जब आ गयी, मुझे रोका है किस लिए.
मौतो-हयात दोनों की है मांग हर तरफ़,
ख्वाहिश है जिसकी जो, नहीं मिलता है, किस लिए।


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हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.
हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश.
उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में,
मानिन्दे-गुहर हुस्न से भर जाने की ख्वाहिश.
अब दे भी चुके सुब्ह को सब अपने उजाले,
बेहतर है करो मिस्ले-कमर जाने की ख्वाहिश.
गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश.
मयखाने के दस्तूर से वाकिफ तो नहीं हम,
दिल में है मगर बादाओ-पैमाने की ख्वाहिश.
ऐ काली घटाओ न हमें खौफ दिलाओ,
हम रखते हैं ज़ुल्मात से टकराने की ख्वाहिश.
झरने न उतरते जो पहाडों से ज़मीं पर,
दिल में ही दबी रहती निखर जाने की ख्वाहिश।
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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.
मौत आयेगी उजालों के समंदर ओढे.
हम भी दुःख-दर्द की दुनिया में उसी तर्ह जिये,
जैसे वीरानों में गौतम ने हैं पत्थर ओढे.
जिस्म मिटटी का है मिटटी में इसे मिलना है,
होगा क्या, जिस्म पे कितना भी कोई ज़र ओढे.
जेबे-तन ब्रज में कन्हैया ने है की ज़र्द कसा,
काली कमली हैं मदीने में पयम्बर ओढे.
तर्क इंसान न कर पाया कभी हुब्बे-वतन,
बूए-काबुल रहा अफ़कार में बाबर ओढे,
सफ़रे-वस्ल हुआ करता है दुश्वार-गुज़ार,
रूह ने आबला-पायी के हैं गौहर ओढे.
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ज़र=सोना, जेबे-तन=शरीर पर सज्जित, ज़र्द कसा=पीताम्बर, हुब्बे-वतन=मातृभूमि प्रेम, बूए-काबुल=काबुल की सुगंध, अफ़कार=वैचारिकता, सफ़रे-वस्ल=मिलन-यात्रा, दुश्वार-गुज़र=कष्टसाध्य, रूह=आत्मा, आबला-पायी= पाँव में छाले पड़ जाना, गौहर=मोती.

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

युग-विमर्श की यात्रा का एक वर्ष

आज 25 फरवरी 2009 को युग-विमार्श ने अपनी यात्रा का एक वर्ष पूरा कर लिया. इस बीच 5872 पाठकों ने 14563 बार युग-विमर्श की रचनाओं और विचारों के साथ संपर्क स्थापित किया। यह एक संतोष-प्रद स्थिति है। देखा जाय तो यह पूरा वर्ष ऐसे पडावों से गुज़रा है जब हिंदी ब्लॉग जगत पर, विभिन्न स्थितियों से टकराते-जूझते देश की पृष्ठभूमि में, पर्याप्त कड़वाहटें व्यक्त हुई हैं। मानसिक तनाव की इस स्थिति से बाहर निकलकर अब कुछ ठंडी हवा महसूस की जा रही है। भावुकता के इस बहाव में युग विमर्श नहीं आया और उसने एक स्वस्थ वैचारिक धरातल पर खड़े रहने का प्रयास किया। इस एक वर्ष में युग विमर्श की 519 प्रविष्टियाँ इस तथ्य की पुष्टि करेंगी। संतोष का विषय यह है की जहाँ उर्दू-हिंदी ग़ज़लों ने अपनी लोकप्रियता बनायी, वहीँ भगवद गीता, इस्लाम की समझ, कबीर का सूफी दर्शन, प्रगतिशील आन्दोलन जैसे गंभीर विषयों से सम्बद्ध आलेख भी रुचिपूर्वक पढ़े गए। सूरदास के रूहानी नगमे और राम काव्य "अब किसे बनवास दोगे" को भी सराहा गया.

युग-विमर्श उन सभी पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया के धरातल पर सहमतियाँ असहमतियां व्यक्त कीं और कहीं कोई तल्खी नहीं आई. हाँ जाने-अनजाने में किसी ब्लॉग कर्मी को युग-विमर्श द्बारा की गयी टिप्पणियों से यदि ठेस पहुंची है तो हमें इसका खेद है. हम और भी सतर्क रहने का प्रयास करेंगे.

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा
यकीं करो मैं तुम्हारे बगैर जी लूँगा
खुशी मिली थी तो उसमें भी कुछ सुरूर न था
मिला है ग़म तो उसे भी खुशी-खुशी लूँगा
अंधेरे आते हैं, आने दो, ये भी हमदम हैं
ये दे सके तो मैं इनसे भी रोशनी लूँगा
पसंद आए तुम्हें जो भी रास्ता, चुन लो
मैं तुमसे कोई भी वादा न अब कभी लूँगा
मेरा ही शह्र मुझे अजनबी समझता है
मैं ये भी ज़ह्र मुहब्बत के साथ पी लूँगा

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शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.

फ़ारसी साहित्य के प्रख्यात कवि हाफिज़ शीराजी ने अपने समय के मूल्य-परक परिवर्तनों को जिस रूप में एक ग़ज़ल में [ईं चि शोरीस्त की दर दौरि-क़मर मी बीनम / हमा आफ़ाक़ पुर-अज फ़ित्न'ओ-शर मी बीनम]रस्तुत किया है उसकी प्रासंगिकता आजके दौर में देखि जा सकती है. उर्दू ग़ज़ल में उसे रूपांतरित कर के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.
शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.
हर तरफ़ दुनिया में है फ़ित्न'ओ-शर देखता हूँ.
ख्वाहिश हर शख्स की है और हों बेहतर अयियाम,
मुश्किलें ये हैं कि हर रोज़ बतर देखता हूँ.
अहमकों के लिए हैं कंद वो गुल के मशरूब,
रिज़्क़ दानाओं का अज़ खूने-जिगर देखता हूँ.
ताज़ी घोडे तो हैं पालान के नीचे ज़ख्मी,
तौक़ सोने का हैं पहने हुए खर देखता हूँ.
लडकियां करती हैं माँओं से यहाँ जंगो-जदल,
और लड़कों को मैं बद्ख्वाहे-पिदर देखता हूँ.
रह्म करता नहीं अब भाई पे भाई मुतलक़,
प्यार से बाप के महरूम पिसर देखता हूँ.
जाके ख्वाजा करो हाफ़िज़ की नसीहत पे अमल,
मैं इसे कीमती अज़ दुर्रो-गुहर देखता हूँ.
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दौरे-क़मर= चंद्रमा के युग में, पुर अज़ फ़ित्न'ओ-शर= उपद्रवों और बुराइयों से भरा हुआ, बेहतर अयियाम=अच्छे दिनों, बतर= और भी बुरा, कंद=दानेदार शकर, गुल=गुलाब, मशरूब=पेय/ शरबत, रिज़्क़=रोज़ी, दानाओं=बुद्धिमानों, खूने-जिगर=खून-पसीना बहाकर, पालान=घोडे का ज़ीन, तौक़=हंसली, खर=गधा, जंगो-जदल=लड़ाई-झगडा, बद्ख्वाहि-पिदर= बाप का बुरा चाहने वाला, रह्म=दया, मुतलक़=tanik भी, महरूम=वंचित, पिसर=बेटा, नसीहत=उपदेश, कीमती अज़ दुर्रो-गुहर=रत्न और मुक्ता से अधिक मूल्यवान.

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.
के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था.
कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया,
के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था.
समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा,
जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था.
ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई,
वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था.
गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल,
कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था.
मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता,
हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था.
तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था,
के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था.

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डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को.

डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को.
लब हिलाना भी हुआ मुश्किल सुख़न के साज़ को.
फूल, पत्ते, शाख, कलियाँ, रंगों-बू हैं नगमा-रेज़,
फिर भी सब पहचान लेते हैं तेरी आवाज़ को.
शोखियाँ, नाज़ो-अदा, खफ़्गी, शिकायत, आरज़ू,
भर लिया आंखों में हमने उसके हर अंदाज़ को.
वक़्त ने रख दी उलट कर इक़्तिदारों की बिसात,
डर कबूतर से न क्यों लगने लगे शाहबाज़ को.
ये समझ कर खुल न पाएंगी कभी अब साजिशें,
क़त्ल कर देते हैं ज़ालिम, हमनवा हमराज़ को.
जब पता है, सिर्फ़ मक़सद है हुकूमत की कशिश,
जोड़ कर देखेंगे क्यों अंजाम से आगाज़ को.
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फ़िक्र=चिंतन, परवाज़=उड़ान, सुखन=कविता, साज़=वाद्य, नगमा-रेज़=सुरीली आवाज़ में गाने वाला, इक़तिदारों=अधिकारों, बिसात=शतरंज का बोर्ड/ पूँजी / हैसियत,शाहबाज़=शिकारी बाज़ पक्षी / श्येन, साजिशें= षड़यंत्र, हमनवा-हमराज़= रहस्यों में शरीक मित्र, मकसद=उद्देश्य, अंजाम=परिणाम, आगाज़=प्रारंभ.

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.

हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.
नक़ाब-पोशियाँ भाईं कभी बुतों को नहीं.
खुशी हुई उसे, दिल की इबारतें पढ़कर,
कि उसने चाहा कभी सादे काग़ज़ों को नहीं.
गुलाब जैसी है रंगत भी और खुशबू भी,
कोई ज़रूरते-तज़ईन उन लबों को नहीं.
सहाफ़ियों को है रंगीनियों में दिलचस्पी,
अज़ीज़ रखते ज़रा भी वो मुफ़्लिसों को नहीं.
हमारे दौर में है इक़तिदार की वक़अत,
कि आज पूछता कोई शराफतों को नहीं.
क़सीदे नज़्म करें किसलिए हुकूमत के,
किसी वजीफे की हाजत सुख़नवरों को नहीं.
जो बढ़ के जाम उठा ले, वही है बादा-परस्त,
मिली ये मय कभी दुनिया में काहिलों को नहीं.
तुम अपनी वज़अ पे क़ायम हो आज भी जाफ़र,
ग़मों में ज़ाया किया तुमने आंसुओं को नहीं।

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