शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग

लाख हों आंखों में आंसू, मुस्कुराते हैं वो लोग.
दूसरों के सामने यूँ गम छुपाते हैं वो लोग.
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जान देकर जो बचाते थे वतन की आबरू,
आपको, हमको, सभी को याद आते हैं वो लोग.
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अपनी ज़ाती सोच से बाहर निकल कर देखिये,
आप ही की तर्ह कुछ सपने सजाते हैं वो लोग.
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आसमानों की छतों के साये में रहते हुए,
ज़िन्दगी की धूप में ख़ुद को सुखाते हैं वो लोग.
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जिनकी ज़हरीली ज़बानों पर नहीं कोई लगाम,
वक़्त आने पर हमेशा मुंह छुपाते हैं वो लोग.
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कितने बुज़दिल हैं हमारे दौर के दहशत-फ़रोश,
हक़ पे हैं तो क्यों नहीं आँखें मिलाते हैं वो लोग.
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दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग

दूर इंसानों से दरया था रवां सब से अलग.
वक़्त ने रहने दिया उसको कहाँ सब से अलग.
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अब किसी के सामने दिल खोलते डरते है लोग,
कर दिया हालात ने सबको यहाँ सब से अलग.
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नफ़रतों की भीड़ में, उल्फ़त की बातें हैं फ़ुज़ूल,
आओ चलकर बैठते हैं हम वहाँ सब से अलग.
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अब हमारे शह्र में भी है इलाक़ाई चुभन,

अब हमारे शह्र की भी है जुबां सब से अलग.
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मस्लकों, सूबों, ज़बानों से है कुछ ऐसा लगाव,
एक लावारिस सा है हिन्दोस्ताँ सब से अलग.
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ख़ुद मेरे अन्दर किसी लमहा हुआ ये हादसा,
रूह को देखा तड़पते, जिस्मो-जाँ सब से अलग.
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गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

तक़द्दुस का पहेनकर खोल हैवाँ रक़्स करता है.

तक़द्दुस का पहेनकर खोल हैवाँ रक़्स करता है।
निगाहें देखती हैं यूँ भी इन्सां रक़्स करता है।

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मेरे घर में दरिन्दे घुस गये मैं कुछ न कर पाया,
मेरा घर अब कहाँ! अब तो बियाबाँ रक़्स करता है।

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समंदर की खमोशी कह रही है कुछ तो होना है,
कहीं गहराइयों में एक तूफाँ रक़्स करता है।

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इबादतगाहों के साए में भी शैतान पलते हैं,
तमाशा देखता है धर्म, ईमाँ रक़्स करता है।

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चलो इस शहर से ये शहर तो पागल बना देगा,
यहाँ हर शख्स बिल्कुल होके उर्यां रक्स करता है.
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तक़द्दुस = पवित्रता, खोल = आवरण, दरिन्दे = चीर-फाड़ करने वाले पशु, रक़्स =नृत्य, उर्यां = नग्न.

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

प्रोफ़ेसरी की छीछालेदर [ डायरी के पन्ने : 1]

हिन्दी ब्लॉग-जगत का एक महत्वपूर्ण ब्लॉग है 'शब्दावली'. अचानक एक दिन मेरी दृष्टि इसपर पड़ गई. सुखद आश्चर्य हुआ यह देखकर कि एक व्यक्ति जो न भाषा विज्ञान का अधिकारी विद्वान है, न किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, कितने जतन, अध्ययन और अध्यवसाय से इस कार्य को कर रहा है. मुझे परशुराम चतुर्वेदी याद आ गए. एक छोटे से जनपद के वकील. संत साहित्य पर इतना बड़ा काम कर गए, कि हिन्दी का अध्येता आज भी उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता. मैं ने श्री अजित वाडनेकर को चिट्ठी लिखी और तत्काल जो कुछ समझ में आया अपने कुछ विचार भी भेज दिए. मुझे उस समय और भी आश्चर्य हुआ जब श्री अजित का अचानक फोन आया और मेरे कानों में आभार के शब्द गूंजे. सोचने लगा कि विश्वविद्यालय में अंडतीस वर्ष के अध्यापन काल में कितने महानुभावों ने मुझसे क्या-क्या लाभ उठाया और उसका खूब-खूब उपयोग भी किया, किंतु किसी ने कभी आभार प्रदर्शन नहीं किया. शब्दावली के साथ तो मैं ने ऐसा कुछ नहीं किया. फिर आभार किस बात का.
थोड़े से अंतराल के बाद जब मैंने शब्दावली के दरवाजे पर दुबारा दस्तक दी, तो देखता क्या हूँ कि मेरी चिट्ठी भी श्री वाडनेकर के लेख के पहलू में विराजमान है और नीचे बताया गया है कि मैं मुस्लिम विश्वविद्यालय में रीडर के पद से सेवा मुक्त हुआ. मैं यंत्रवत जब यह चिट्ठी लिखकर भेज चुका कि मैं रीडर नहीं प्रोफेसर था तो मुझे अपने ही कृत्य पर हँसी आ गई. कहीं न कहीं मैं आज भी अन्तश्चेतन में प्रोफ़ेसरी को बहुत बड़ी चीज़ समझता हूँ. कुछ ऐसा ही आभास हुआ मुझे.
मैं लौट गया अपने बचपन और अपनी युवावस्था की ओर. मेरे शहर मिर्जापुर में मेरे मकान से दो-एक मकान छोड़कर बी.एल.जे. इंटर कालेज के दो अध्यापक रहते थे. श्री आशुतोष बेनर्जी और श्री मुख्तार अहमद. दोनों अंग्रेज़ी पढाते थे और दोनों प्रोफेसर कहे जाते थे. यह बात 1956-57 की है, जब मैं इंटर फाइनल में था. श्री मुख्तार अहमद उर्दू में अफ़साने लिखते थे जो उस समय की अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिका 'बीसवीं सदी' में छपते थे. श्री मुख्तार अहमद के नाम के पहले प्रोफेसर शब्द ज़रूर होता था.
दो वर्ष बाद शहर में मुसलमानों का एक धार्मिक जलसा हुआ- जल्सए-मीलादुन्नबी. बड़े-बड़े इश्तेहार लगे.उसपर एक नाम छपा था प्रोफेसर अब्दुल कय्यूम और लिखा गया था कि ये सज्जन मुस्लिम विश्वविद्यालय से पधार रहे हैं. अब इसे क्या कहियेगा, अपने गुरु डॉ. राकेश गुप्त के आदेश पर जब मैंने 1962 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. में एडमीशन लिया तो पता चला कि पूरे विश्वविद्यालय में मुश्किल से पचीस-तीस प्रोफेसर हैं. श्री कय्यूम यहीं विश्वविद्यालय में हाई स्कूल में पढाते हैं. आंखों पर पड़े कुछ जले साफ़ हुए. प्रोफेसर शब्द का आतंक नए रूप में दिमाग में प्रवेश कर गया. सामान्य रूप से यह प्रोफेसर स्थायी विभागाध्यक्ष भी होता था और विभाग में उसकी इच्छा के विरुद्ध पत्ता भी नहीं हिल सकता था. शोध छात्रों की नियति अल्लाह मियाँ नहीं लिखते थे, इसी प्रोफेसर के कलम से लिखी जाती थी.
समय के साथ मूल्यों का बदलना सहज है. यू.जी.सी. ने शिक्षा संस्थाओं में प्रोमोशन के दरवाज़े खोल दिए. नाम था ‘मेरिट प्रोमोशन’. किंतु मेरिट का अर्थ यह था कि कौन कितना सीनिअर या जुगाडू है.धडाधड प्रोफेसर होने लगे. जिसने बहुत लिखा-पढ़ा वह भी प्रोफेसर हुआ जिसने कुछ नहीं लिखा वह भी प्रोफेसर बनाया गया. फिर डिग्री कालेजों में तो प्रोफेसर का पद न होते हुए भी सभी अध्यापक धड़ल्ले से प्रोफेसर कहते और लिखते थे. यह स्थिति 1975-76 के बाद सामान्य हो गई थी. मुझे डॉ. इन्द्रनाथ मदान का प्रोफ़ेसरी का इंटरव्यू याद आ गया जो उन्होंने स्वयं बताया था. उनसे पूछा गया 'आप क्यों समझते हैं कि आप इस पद के लिए उपयुक्त हैं ? डॉ. मदान ने उत्तर दिया-'मुझसे अधिक उपयुक्त तो कोई है ही नहीं. प्रोफेसर होने के लिए तीन बातें ज़रूरी है. पहली यह कि उसने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया हो, तो मैं यह काम पहले ही कर चुका हूँ. दूसरी ये कि उसके पास कार और बंगला हो, तो मेरे पास वो भी है. तीसरी यह कि वो सेमिनारों और सम्मेलनों की अध्यक्षता करता हो, लिखित भाषण कभी न देता हो और शोध-पत्र वाचन से मुक्त हो. मुझमें ये तीनों बातें हैं. इस इंटरव्यू के बाद मदान जी प्रोफेसर बना दिए गए.
यू.जी. सी. का नाटक आज भी जारी है. कागज़ की खानापूरी आज भी होती है. इतने शोध-पत्र छपे हों, इतना रिसर्च-वर्क हो. पेपर कहाँ छपे हैं, कोई नहीं देखता, रिसर्च किस स्तर की है कोई नहीं पूछता. प्रोफ़ेसरी की यह छीछालेदर यू.जी.सी. को दिखायी नहीं देती. स्थिति यह हो गई है कि विश्वविद्यालयों में प्रवक्ता नहीं दिखायी देते, रीडर दो-चार मिल जाते हैं और प्रोफेसरों की भरमार है.
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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे.
ख़ुद अंधेरों में हो ये देख सकोगे कैसे।
ज़ाफ़रानी नज़र आते हैं जो गुलहाए-चमन.
उनमें है ज़ह्र, तो ये बात कहोगे कैसे.
चाँद गहनाया है, ठिठरी सी नज़र आती है रात,
मन्ज़िलें दूर हैं, राहों में चलोगे कैसे.
घर के फूलों से कहो सीखें न काँटों का चलन,
वरना फिर ऐसे बियाबाँ में रहोगे कैसे.
यूँ ही अल्फ़ाज़ में अंगारे अगर भरते रहे,
शोले भड़केंगे हरेक सम्त, बचोगे कैसे.
वक़्त लग जाता है किरदार बनाने में बहोत,
इतना गिर जाओगे नीचे तो उठोगे कैसे।
आइना सामने रख देगा ज़माना जिस रोज़,
अपनी तस्वीर पे सोचो कि हंसोगे कैसे.
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सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 8]

[50]
शोभित कर नवनीत लिए.
घुटुरुनि चलत रेनू तन मंडित, मुख दधि लेप किए.
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिए.
कठुला कंठ, बज्र, केहरि-नख, राजत रुचिर हिये.
धन्य 'सूर', एकौ पल इहिं सुख, का सतकल्प जिए.


फबते हैं श्याम हाथ में मक्खन लिए हुए.
लिपटी है धूल जिस्म में चलते हैं घुटनियों,
मुंह को दही का लेप है आरास्ता किए.
दिलकश हैं गाल, आंखों की शोखी है दीदा-जेब,
माथे पे खुशबुओं का तिलक हैं दिए हुए.
चहरे के दोनों सिम्त हैं काली घनी लटें,
भंवरे हों जैसे फूलों के जामो-सुबू पिए.
नाखुन हैं शेर के जो बजर बट्टूओं के साथ,
माला गले की, हुस्न को देती है ज़ाविए.
ऐ 'सूर' इस खुशी का है इक लमहा भी बहोत,
नाहक कोई हज़ार बरस किस लिए जिए.

[51]
मैया ! मैं नहिं माखन खायौ.
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ.
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ.
हौं जु कहत नान्हें कर अपने, मैं कैसे करि पायौ.
मुख दधि पोंछ, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ.
डारि सोंटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ.
लाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ.
'सूरदास' जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ.


माँ! मैं सच कहता हूँ, मैंने नहीं खाया मक्खन.
हाँ ख़याल आता है, अहबाब ने मिलकर बाहम,
था शरारत में मेरे मुंह पे लगाया मक्खन.
तुम ही ख़ुद देखो कि लटकाती हैं ऊंचाई पर,
मटकियाँ ग्वालनें, छींके पे जतन से रख कर,
अपने इन नन्हें से हाथों से बताओ तो भला,
कैसे मैं इतनी बलंदी पे पहोंच सकता हूँ.
कर लिया साफ़, लगा था जो दही होंटों पर,
और चालाकी से दोने को छुपाया पीछे.
फ़ेंक कर बेत, जशोदा ने खुशी से बढ़कर,
श्याम को सीने से लिपटा लिया बादीदए-तर.
'सूर' हासिल है जो इस वक़्त जशोदा को खुशी,
देवताओं ने भी सच पूछिए पायी न कभी.

[52]
मैया ! मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ.
मोसों कहत, मोल कौं लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ.
कहा करौं इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात.
पुनि-पुनि कहत, कौन है माता, को है तेरौ तात.
गोरे नन्द, जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात.
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हंसत, सबै मुसकात.
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीझै.
मोहन मुख रिस की यह बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै.
सुनहु कान्ह! बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत.
'सूर' स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत.


माँ! मुझे करते हैं बलराम परीशान सदा.
कहते हैं मुझसे, तुझे मोल है ले आया गया.
बत्न से कब तू जशोदा के हुआ है पैदा.
क्या करूँ मैं कि इसी खफगी से आजिज़ आकर.
खेलने के लिए साथ उनके नहीं जा पाता.
पूछते रहते हैं रह-रह के बराबर मुझसे.
कौन अम्मा है तेरी, कौन है तेरा बाबा.
नन्द भी गोरे हैं, गोरी हैं जशोदा भी बहोत.
सांवला रंग तेरे जिस्म का फिर कैसे हुआ.
चुटकी ले-ले के सभी ग्वाल नचाते हैं मुझे.
हँसते हैं मुझपे, कि इसमें उन्हें आता है मज़ा.
तूने सीखा है फ़क़त मेरी पिटाई करना.
भाई पर क्यों नहीं आता कभी तुझको गुस्सा.
मुंह से मोहन के, ये खफगी भरी बातें सुनकर,
दिल जशोदा का, खुशी ऐसी मिली, झूम उठा.
प्यार से बेटे को लिपटा के जशोदा ने कहा.
गौर से श्याम सुनो, पूछो न बलभद्र है क्या.
जानते सब हैं कि पैदाइशी शैतान है वो,
बस इधर की है उधर बात लगाता फिरता.
'सूर' के श्याम! मैं गोधन की क़सम खाती हूँ,
मैं ही अम्मा हूँ तेरी, तू है मेरा ही बेटा.

[53]
बृंदाबन देख्यो नन्द नंदन, अतिहि परम सुख पायौ.
जहँ-जहँ गाय चरति ग्वालनि संग, तह-तहं आपुन धायौ.
बलदाऊ मोकों जनि छाँडौ़, संग तुम्हारे ऐहौं.
कैसेहु आज जसोदा छाँड्यो, काल्हि न आवन पैहौं.
सोवत मोकौ टेर लेहुगे, बाबा नन्द दुहाई.
'सूर' स्याम बिनती करि बल सौं, सखन समेत सुनाई.


बृंदाबन का देखके मंज़र, नन्द के बेटे ने सुख पाया.
जहाँ-जहाँ भी ग्वालों के संग, गायें चरती दिखलाई दीं.
वहाँ-वहाँ खुश हो-होकर ख़ुद, खुश-ज़ौक़ी से दौड़ के आया.
बलदाऊ मुझको मत छोड़ो, साथ तुम्हारे आऊंगा मैं,
आज किसी सूरत से, जशोदा माँ ने इजाज़त दी है मुझको.
कल तुमने गर छोड़ दिया तो, यहाँ न आने पाऊंगा मैं.
सोते से भी जगा लेना तुम, बाबा नन्द का वास्ता तुमको,
'सूरदास' बलराम से मिन्नत करके श्याम ने सबको रिझाया.

[54]
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ.
आजु गयौ मेरौ गई चरावन, हौं बलि जाऊं निछनियाँ.
मो कारन कछु आन्यो है बलि, बन फल तोरि नन्हैया.
तुमहि मिले मैं अति सुख पायौ, मेरे कुंवर कन्हैया.
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दै री माखन रोटी.
'सूरदास' प्रभु जीवहु जुग-जुग, हरि हलधर की जोटी.


श्याम को दौड़कर गोद में भर लिया.
प्यार से माँ जशोदा ने फिर ये कहा,
जाके गायें चरा लाया बेटा मेरा.
क्यों न हो जाऊं मैं आज इसपर फ़िदा.
लूँ बालाएं, उतारूं मैं सदक़ा तेरा.
ऐ मेरे लाल! मेरे लिए भी कोई,
तोड़कर नन्हे हाथों से जंगल का फल,
अपने हमराह लेकर तू आया है क्या.
मिल गया तू मुझे हर खुशी मिल गई,
मेरा नन्हाँ कुंवर है कन्हाई मेरा.
थक गया होगा तू, भूक होगी लगी,
जो भी अच्छा लगे खा ले ऐ महलक़ा.
खादिमा है कहाँ, देर करती है क्यों,
मेरे मोहन को मक्खन से रोटी खिला.
'सूर' कहते हैं बस यूँ ही क़ायम रहे,
ऐ खुदा! श्याम-हलधर की जोड़ी सदा.

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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

दीपावली की शुभ कामनाएं

दीप मल्लिका पर्व यह, सब को दे आनंद।
मंगलमय जीवन बने, रहे न कोई द्वंद।
दीप-शिखा की ज्योति में, मन का हो उल्लास।
बढे परस्पर स्नेह से, भारत का विशवास।
देता है शुभ कामना, युग-विमर्श परिवार।
होंगे सपने आपके, निश्चय ही साकार।
भेज रहे हैं आपतक, शब्दों के मिष्ठान,
आस्वादन से हो मुखर, होंठों की मुस्कान।
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YUG-VIMARSH

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.
सदी के सफ़्फ़ाक तेवरों की, लहू भरी आहटें मिलेंगी.
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दिलों में शुबहात के दरीचे, खुलेंगे इस तर्ह रफ़्ता-रफ़्ता,
निगाहों में दोस्तों की अनजानी अजनबी करवटें मिलेंगी.
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ये रास्ते हमको लेके जायेंगे ऐसे वीरान जंगलों में,
जहाँ हमारे ही जिस्मों की बरगदों से लटकी लटें मिलेंगी.
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हमारे दिल में भी है ये ख्वाहिश, कि चाँद को हम भी छू के देखें,
हमें ये शायद ख़बर नहीं है, हमें वहाँ तलछटें मिलेंगी.
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तबाहियों से तड़प रहे है जो उनके घर कोई जाए कैसे,
वहाँ फ़क़त चीखते हुए दर, कराहती चौखटें मिलेंगी.
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गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं./ जाफ़र ताहिर

गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं.
दिल-सिताँ सिलसिलए-ग़म-ज़दगां है कि नहीं.
हर नफ़स बज़्मे-गुलिस्ताँ में ग़ज़ल-ख्वाँ था कभी,
हर नफ़स नाला-कशां, नौहा-कुनाँ है कि नहीं.
हर ज़बाँ पर था कभी तज़्करए-दौरे-बहार,
हर ज़बाँ शिक्वागरे-जौरे-खिजाँ हैं कि नहीं.
मय-चकाँ, बादा-फ़िशां, थे लबे-गुलरंग कभी,
लबे-गुलरंग पे ज़ख्मों का गुमाँ है कि नहीं.
दश्ते-वहशत से नहीं कम ये जहाने-गुलो-बू,
सूरते रेगे-रवां, उम्र रवां है कि नहीं.
न तो बुलबुल की नवा है, न सदाए-ताउस,
सहने-गुलज़ार में अब अम्नो-अमां है कि नहीं.
ज़िन्दगी कुछ भी सही, फिर भी बड़ी दौलत है,
मौत सी शै भी यहाँ जिन्से-गराँ है कि नहीं.
ज़ुल्म चुपचाप सहे जाओगे आख़िर कब तक,
ऐ असीराने क़फ़स ! मुंह में ज़बाँ है कि नहीं.
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काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता / वसी शाह

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता,
तू बड़े प्यार से, चाओ से बड़े मान के साथ,
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढाती मुझको,
और बेताबी से फुरक़त के खिजां लम्हों में,
तू किसी सोच में डूबी जो घुमाती मुझको,
मैं तेरे हाथ की खुशबू से महक सा जाता,
जब कभी जोश में आकर मुझे चूमा करती,
तेरे होंटों की मैं हिद्दत से दाहक सा जाता।
रात को जब भी तू नींदों के सफर पर जाती,
मैं तेरे कान से लगकर कई बातें करता,
तेरी जुल्फों को तेरे गाल को चूमा करता।
जब भी तू बन्दे-क़बा खोलती मैं खुश होकर,
अपनी आंखों को तेरे हुस्न से खीरा करता.
मुझको बेताब सा रखता तेरी चाहत का नशा,
मैं तेरी रूह के गुलशन में महकता रहता.
मैं तेरे जिस्म के आँगन में खनकता रहता.
कुछ नहीं तो यही बेनाम सा बंधन होता.
काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता।
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