सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

दूर तक छाये थे बादल / क़तील शफ़ाई

दूर तक छाये थे बादल, पर कहीं साया न था.
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था.
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर,
ऐ दिले-नादाँ, तुझे क्या हमने समझाया न था.
उफ़ ये सन्नाटा की आहट तक न हो जिसमें मुखिल,
ज़िन्दगी में इस कदर जमने सुकूँ पाया न था.
खूब रोये छुपके घर की चारदीवारी में हम,
हाले-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था.
हो गए कल्लाश जबसे आस की दौलत लुटी,
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था.
सिर्फ़ खुशबू की कमी थी गौर के क़ाबिल 'क़तील',
वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था.
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रविवार, 5 अक्तूबर 2008

फ़स्ल खेतों में जलाकर

फ़स्ल खेतों में जलाकर, खुश हुए दुश्मन बहोत।
हादसा दिल पर वो गुज़रा, बढ़ गई उलझन बहोत।
रास आएगी तुझे हरगिज़ न ये आवारगी,
ज़िन्दगी ! तेरे लिए हैं तेरे घर-आँगन बहोत।
मेरे मज़हब के अलावा सारे मज़हब हैं ग़लत,
सोचते हैं आज इस सूरत से मर्दों-ज़न बहोत।
बर्क किस-किस पर गिराओगे, मैं तनहा तो नहीं,
हक़ पसंदों के हैं मेरे मुल्क में खिरमन बहोत।
खून की रंगत किसी तफ़रीक़ की क़ायल नहीं,
आदमी है एक, हाँ उसके हैं पैराहन बहोत।
आम के बागों में कजली की धुनें, झूलों की पेंग,
याद आता है मुझे क्यों गाँव का सावन बहोत।
मुफलिसी के बाद भी इज्ज़त पे आंच आई नहीं,
शुक्र है हर हाल में सिमटा रहा दामन बहोत।
वैसे तो परदेस में भी मैं बहोत खुश हाल था,
जब भी घर लौटा हुआ महसूस अपनापन बहोत।
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शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

बिखरता फूल जैसे शाख पर / सबा ज़फ़र

बिखरता फूल जैसे शाख पर अच्छा नहीं लगता।

मुहब्बत में कोई भी उम्र भर अच्छा नहीं लगता।

मैं उसको सोचता क्यों हूँ अगर नुदरत नहीं उसमें,

मैं उसको देखता क्यों हूँ अगर अच्छा नहीं लगता।

वो जिसकी दिलकशी में गर्क रहना चाहता हूँ मैं,

वही मंज़र मुझे बारे-दिगर अच्छा नहीं लगता।

किसी सूरत तअल्लुक़ की मसाफ़त तय तो करनी है,

मुझे मालूम है तुझको सफर अच्छा नहीं लगता।

हज़ार आवारगी हो बेठिकाना ज़िन्दगी क्या है,

वो इन्सां ही नहीं है जिसको घर अच्छा नहीं लगता।

वो चाहे फ़स्ल पक जाने पे सारे खेत चुग जाएँ,

परिंदों को करूँ बे-बालो-पर, अच्छा नहीं लगता।

वसीला रास्ते का छोड़कर मंज़िल नहीं मिलती,

खुदा अच्छा लगे क्या जब बशर अच्छा नहीं लगता।

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जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं

जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
ये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
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हया के तायरों के आशियाँ थे आंखों में,
जभी तो मिलने पे ये खुलके मुस्कुरा न सकीं.
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हमारे घर में ग़मों के निगाहबां थे खड़े,
बहारें आना बहोत चाहती थीं आ न सकीं.
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तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
मगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.
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शिकंजे कस दिए थे हमने आरजूओं के,
गिरफ़्त सख्त थी इतनी कि फडफडा न सकीं.
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गुलों को अपने लहू से जो बख्शते थे हयात,
वो नगमे बुलबुलें इस दौर में सुना न सकीं.
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मुसीबतों ने मेरे घर में जब क़दम रक्खा,
पसंद आया घर ऐसा कि फिर वो जा न सकीं.
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वो लोग जो ज़िन्दा हैं / साक़ी फ़ारूक़ी

वो लोग जो ज़िन्दा हैं, वो मर जायेंगे इक दिन।
दुनिया के मुसाफ़िर हैं, गुज़र जायेंगे इक दिन।
सीने में उमंगें हैं, निगाहों में उजाले,
लगता है कि हालात संवर जायेंगे इक दिन।
दिल आज भी जलता है उसी तेज़ हवा में,
पत्तों की तरह हम भी बिखर जायेंगे इक दिन।
सच है कि तआकुब में है आसाइशे-दुनिया,
सच है कि मुहब्बत से मुकर जायेंगे इक दिन।
यूँ होगा कि इन आंखों से आंसू न बहेंगे,
ये चाँद सितारे भी ठहर जायेंगे इक दिन।
अब घर भी नहीं, घर की तमन्ना भी नहीं है,
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जायेंगे इक दिन।
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शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

परदेसों से चन्द परिंदे

परदेसों से, चन्द परिंदे, आये थे कुछ रोज़ हुए।
खुश होकर घर-आँगन कैसा चहके थे कुछ रोज़ हुए।
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मीठी-मीठी यादों के कुछ आवारा मजनूँ साए,
कड़वे-कड़वे सन्नाटों में चीखे थे कुछ रोज़ हुए।
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नर्म-नर्म, उजले बादल के, रूई के गालों जैसे,
जाज़िब टुकड़े, आसमान से उतरे थे कुछ रोज़ हुए।
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प्यारी-प्यारी खुशबू से था भरा-भरा माहौल बहोत,
कैसे-कैसे फूल फ़िज़ा में महके थे कुछ रोज़ हुए।
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ख्वाब हकीकत बन जाते हैं आज मुझे महसूस हुआ,
ख़्वाबों में खुशरंग मनाजिर देखे थे, कुछ रोज़ हुए।
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फिर से लोग वही तस्वीरें दिखलाने क्यों आये हैं,
अभी-अभी तो हमने धोके खाये थे कुछ रोज़ हुए।
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सोने की ये थाली लेकर सुब्ह कहांतक जायेगी,
चाँद ने जाने कैसे संदेसे भेजे थे कुछ रोज़ हुए।

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दिन ढल चुका था और.. / वज़ीर आगा

दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था।
सारा लहू बदन का रवां मुश्ते-पर में था।
हद्दे-उफ़क़ पे शाम थी खैमे में मुंतज़िर,
आंसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था।
जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।
लो वो भी नर्म रेत के टीले में ढल गया,
कल तक जो एक कोहे-गरां रहगुज़र में था।
पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।
उसका बदन था खून की हिद्दत से शोलावश,
सूरज का इक गुलाब सा तश्ते-सहर में था।
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दुश्मनी हिन्दी से थी

दुश्मनी हिन्दी से थी, मारे गए मासूम लोग।

कैसे इस सूबा परस्ती से न हों मगमूम लोग।

एक जानिब हैं लक़ो-दक़ खुशनुमां उम्दा मकां,

दूसरी जानिब हैं खपरैलों से भी महरूम लोग।

एक अरसे से हिरासत में हैं कितने बेगुनाह,

क्या खता थी, कर न पाये आज तक मालूम लोग।

ज़िन्दगी की तेज़गामी का नहीं देते जो साथ,

ज़िन्दगी में ही समझते हैं उन्हें मरहूम लोग।

खुदसे जितना प्यार करते हैं, करेंगे मुझसे भी,

जान लेंगे जब मेरे अशआर का मफ़हूम लोग।

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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

वो जिसका रंग सलोना है / सादिक़ नसीम

वो जिसका रंग सलोना है बादलों की तरह।
गिरा था मेरी निगाहों पे बिजलियों की तरह।
वो रू-ब-रू हो तो शायद निगाह भी न उठे,
जो मेरी आंखों में रहता है रतजगों की तरह।
चरागे-माह के बुझने पे ये हुआ महसूस,
निखर गई मेरी शब तेरे गेसुओं की तरह।
वो आंधियां हैं कि दिल से तुम्हारी यादों के,
निशाँ भी मिट गए सहरा के रास्तों की तरह।
मेरी निगाह का अंदाज़ और है वरना,
तुम्हारी बज़्म में मैं भी हूँ दूसरों की तरह।
हरेक नज़र की रसाई नहीं कि देख सके,
हुजूम-रंग है खारों में भी गुलों की तरह।
न जाने कैसे सफ़र की है आरजू दिल में,
मैं अपने घर में पड़ा हूँ मुसाफिरों की तरह।
मैं दश्ते-दर्द हूँ यादों की नकहतों का अमीं,
हवा थमे तो महकता हूँ गुलशनों की तरह।
उसी की धुन में चटानों से सर को टकराया,
वो इक ख़याल कि नाज़ुक था आईनों की तरह।
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बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ ?

हम आप जीवन में सोंचते कुछ और हैं और होता कुछ और है. कश्मीर की दस्तकारी अपनी कलात्मकता की दृष्टि से अद्वितीय है. तारिक अहमद दर के पिता श्री गुलाम नबी दर इस व्यापर से नहीं जुड़े थे किंतु एक संपन्न परिवार की पृष्ठभूमि और कश्मीरी भाषा के एक जाने पहचाने कवि होने के रिश्ते से आस-पास के क्षेत्रों में उनकी अच्छी-खासी इज्ज़त थी. पिता की शायरी के गुल बूटे तारिक अहमद दर ने कश्मीर की हस्त कला में तलाश कर लिए और इन सुरीले नगमों को लेकर वह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कश्मीरी कला के व्यापारी की हैसियत से घूम रहे थे. हिन्दुस्तान टाइम्स के 29 सितम्बर के अंक में छपी दर की कथा ठहर कर कुछ सोंचने के लिए विवश करती है. लगता है कि दर का स्थान कभी हम आप भी ले सकते हैं. वैसे तो मैं भाग्यवादी नहीं हूँ और मुक़द्दर की गुल्तराशियों में कभी झाँक कर नहीं देखता. तारिक अहमद दर से अगर यही सवाल पूछा जाय तो शायद वह भी मुक़द्दर की बात न करके समय और परिस्थितियों की बात करेंगे.
हुआ यूँ कि दर साहब की घुमक्कड़ प्रकृति ने व्यापार के बहाने उन्हें बांग्लादेश जाने के लिए उकसाया. यह बात आज से लगभग दो वर्ष पूर्व की है.ज़ाहिर है कि दर उस समय सत्ताईस वर्ष के एक खूबसूरत नौजवान थे. वे कश्मीरी व्यापारी ज़रूर थे किंतु उनके पासपोर्ट पर हिन्दुस्तानी होने का ठप्पा लगा था. हो सकता है उनकी आंखों से भी उनकी हिंदुस्तानियत चुगली कर रही हो. बांग्लादेशियों को उनमे एक भारतीय जासूस छुपा दिखायी दिया. बात तो सिर्फ़ देखने की है. हम आप भी किसी में कुछ भी देखने के लिए आजाद हैं. अब क्या था. 15 सितम्बर 2006 को बांगलादेशी अधिकारियों ने तारिक अहमद दर को भारतीय रिसर्च एंड अनालिसिस विंग का एजेंट घोषित करके जेल में डाल दिया. खुदा-खुदा करके किसी प्रकार चालीस दिनों के बाद आज़ादी मिली.किंतु उनके पैरों की कई नसें सुन्न पड़ चुकी थीं. कारागार और पुलिस की पूछ-ताछ का पुरस्कार तो मिलना ही था. दस्तकारियों के गट्ठर का क्या हुआ, यह बताना और भी मुश्किल है. दर साहब को हर समय महसूस होता था जैसे कोई हिन्दुस्तानी फिल्मों के मस्त मलंग बाबा की तरह कहीं नेपथ्य में गा रहा हो -"ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ.”
पेशानी पर खिंची तनाव की लकीरों से मुक्त होने के विचार से तारिक दर ने सर को हल्का सा झटका दिया औए खुली हवा के एहसास को साँसों में भरते हुए खुदा का शुक्र अदा करके वापस हिंदुस्तान लौटने के विचार से एअर-पोर्ट पहुंचे. दिल्ली तक की यात्रा अच्छी कट गई. लेकिन अब इसे क्या कहिये. लोगों ने शायद ठीक ही कहा है कि परीशानियाँ कभी अकेले नहीं आतीं. अल्लाह मियाँ के मंत्रालय का सेक्शन आफीसर परीशानियों की फाइल खोलकर बैठा ही था की किसी ज़रूरी काम से साहब ने उसे बाहर भेज दिया. अब यह फाइल बंद कौन करे.
दिल्ली एअर-पोर्ट पर भारतीय पुलिस तारिक अहमद दर की प्रतीक्षा कर रही थी. खुफिया विभाग की पुख्ता रिपोर्ट थी कि तारिक अहमद दर प्रतिबंधित लश्करे-तैयेबा से गहरा राब्ता रखते हैं. एक खतरनाक आतंकवादी घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कड़ी सुरक्षा में तिहार जेल भेज दिया गया. बांग्लादेश की ही तरह यहाँ भी उनका स्वागत-सत्कार हुआ. वह तो कहिये कि हिन्दुस्तान टाइम्स को इसकी भनक लग गई. 24 जनवरी 2007 को तारिक अहमद दर का मर्सिया छापकर अखबार ने उनके आजाद होने की कुछ संभावनाएं बनायीं. आशाओं की खिड़कियाँ खुलने लगीं. और अंत में चीफ मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट सीमा मैनी ने उन्हें आजाद करते हुए कहा-" मैं अपने आपको यह महसूस करने से नहीं रोक पा रही हूँ कि यह कितनी विडम्बनापूर्ण और दुखद स्थिति है कि एक भारतीय नागरिक को नववे दिनों तक कारागार में रखा गया जो किसी भी बेगुनाह के लिए आजीवन कारावास से कम नहीं है."
तारिक अहमद दर तिहार जेल से मुक्त ज़रूर हो गए किंतु ढेर सारे प्रश्नों की एकमुखी रुद्राक्ष उनके गले में आज भी लटकी हुई है जो समय-असमय सतर्क करती रहती है. हस्त-शिल्प के व्यापार से सम्बद्ध जब वह किसी भी यात्रा पर निकलते हैं तो सुरक्षा-कवच के रूप में अखबारों की कटिंग और मजिस्ट्रेट के आदेश की पक्की नक़ल अपने साथ रखना नहीं भूलते. जब भी कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है उनके दोनों हाथ यंत्रवत आसमान की ओर उठ जाते हैं-" या अल्लाह ! मेरे दिल की धड़कनें रुक सी गई हैं. मैं अपनी आँखें बंद करके तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि कहीं वह मेरी ही तरह का एक इंसान न हो."
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