मंगलवार, 30 सितंबर 2008

करतब कमाल का था

करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।

बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।

सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,

फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।

नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,

नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।

दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,

दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।

किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,

ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।

क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,

वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।

परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,

परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।

**************************

दिल के सहरा में / नूर बिजनौरी

दिल के सहरा में कोई आस का जुगनू भी नहीं।
इतना रोया हूँ कि अब आँख में आंसू भी नहीं।
इतनी बेरहम न थी ज़ीस्त की दोपह्र कभी,
इन खराबों में कोई सायए-गेसू भी नहीं।
कासए-दर्द लिए फिरती है गुलशन की हवा,
मेरे दामन में तेरे प्यार की खुशबू भी नहीं।
छिन गया मेरी निगाहों से भी एहसासे-जमाल,
तेरी तस्वीर में पहला सा वो जादू भी नहीं।
मौज-दर-मौज तेरे गम की शफ़क़ खिलती है,
मुझको इस सिलसिलाए-रंग पे काबू भी नहीं।
दिल वो कम्बख्त कि धड़के ही चला जाता है,
ये अलग बात कि तू ज़ीनते-पहलू भी नहीं।
हादसा ये भी गुज़रता है मेर जाँ हम पर,
पैकरे-संग हैं दो, मैं भी नहीं, तू भी नहीं।
***************

सोमवार, 29 सितंबर 2008

सोंच और विचार

एक जैसी सोंच के बावजूद
कितने भिन्न हैं मेरे और उसके विचार!
उसे मेरे शब्दों में आक्रोश की झलक मिलती है,
हो सकता है वह ठीक हो,
हो सकता है मेरा आहत मन
उसे न छू सका हो.
और यह भी हो सकता है,
कि मैंने ही उसे गलत समझा हो,
ग़लत सन्दर्भों में रखकर देखा हो.
किंतु, सोंचता हूँ मैं-
कि जहाँ-जहाँ मेरा मन आहत होता है,
उसका क्यों नहीं होता ?
वह भी तो मेरी ही तरह सोंचता है।
*********************

कहीं तुम अपनी किस्मत / सलीम कौसर

कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते।
तो शायद हम भी अपना रास्ता तब्दील कर लेते।
अगर हम वाकई कम हौसला होते मुहब्बत में,
मरज़ बढ़ने से पहले ही दवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारे साथ चलने पर जो दिल राज़ी नहीं होता,
बहोत पहले हम अपना फैसला तब्दील कर लेते।
तुम्हें इन मौसमों की क्या ख़बर मिलती अगर हम भी,
घुटन के खौफ से आबो-हवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारी तर्ह जीने का हुनर आता तो फिर शायद,
मकान अपना वही रखते, पता तब्दील कर लेते।
जुदाई भी न होती ज़िन्दगी भी सहल हो जाती,
जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते।
हमेशा की तरह इस बार भी हम बोल उठे, वरना,
गवाही देने वाले वाक़या तब्दील कर लेते।
**********************

रविवार, 28 सितंबर 2008

प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के वक्तव्य पर इतनी बेचैनी क्यों ?

जामिया मिल्लिया के कुलपति प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन अभी कल तक हिन्दी मिडिया की दृष्टि में प्रगतिशील भी थे और राष्ट्रवादी भी, किंतु बटला हाउस से जामिया के दो छात्रों की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने जो वक्तव्य दिया उसकी प्रतिक्रिया हिन्दी मीडिया और हिन्दी ब्लॉग-जगत में खासी तीखी हुई. कुछ राष्ट्रवादी महानुभावों ने कुलपति पद से उनके हटाये जाने तक की मांग कर ली। राष्ट्रीय सोंच की प्रकृति भी यही है। व्यक्ति को उसके कृत्य से नहीं, वक्तव्य से परखना चाहिए. जामिया के वे छात्र जो गिरफ्तार किए गए हैं, यदि उन्हें आतंकवादी गतिविधियों में भागीदारी करते रंगे हाथों पकड़ा गया होता तो स्थिति दूसरी होती. केवल संदेह के आधार पर बटला हाउस पर दबिश डाली गई और तथाकथित मुठभेड़ के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया. अंग्रेज़ी अखबारों में इन छात्रों के सम्बन्ध में जो सूचनाएं छपी हैं और मुठभेड़ की कथा को जिस प्रकार संदेह के घेरे में रखकर देखा जा रहा है, उससे कुछ और ही तस्वीर उभरती है. जामिया के छात्रों ने स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया और जनवादी महिला समिति की ओर से बांटे गए पर्चों पर जब वैचारिक आदान-प्रदान किए और संदर्भित अंसल प्लाजा के और गुजरात के सोहराबुद्दीन के नाटकीय मुठभेडों का उल्लेख किया और पुलिस की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगाए तो दिल्ली के हिन्दी समाचार-पत्रों को यह गडे मुर्दे उखाड़ने जैसा प्रतीत हुआ.
बात स्पष्ट है कि मुसलामानों को चाहे वह कितने ही प्रगतिशील और राष्ट्रवादी क्यों न हों, अपने निकट अतीत की भी पीडाएं दुहराने का कोई अधिकार नहीं है. यह अधिकार केवल बहुसंख्यक वर्ग का है जो मध्ययुगीन इतिहास से समय-समय पर गडे मुर्दे उखाड़कर वितंडावाद खड़े कर सकता है. मुसलमानों की भलाई चुप रहने में ही है. भले ही यह चुप्पी बर्दाश्त के बाहर होकर फट पड़े और नादान हाथों में पड़कर दहशत गर्दी की शक्ल अख्तियार कर ले. हिंदी मीडिया की यह सोंच स्थितियों को क्या से क्या बनाती जा रही है, इसपर कभी ठंडे मन से विचार किया जा सकता है.
तेरह सितम्बर को हुए पाँच धमानकों के बाद एक धमाका सत्ताईस सितम्बर को मेहरौली के फूल बाज़ार में हुआ जिसमें दो जाने चली गयीं और अट्ठारह लोग ज़ख्मी भी हुए. इस धमाके की चेतावनी छब्बीस सितम्बर की शाम को पुलिस को मोबाइल द्बारा प्राप्त हो चुकी थी. छान-बीन करने पर यह मोबाइल किन्ही रमेश जी( १ ) का पाया गया इस लिए जांच आगे बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था. टीवी चैनलों की भी इसमें विशेष रूचि नहीं थी. खबरों की मार्केटिंग में केवल रोचक सामग्री ही जनमानस को आकृष्ट कर सकती है. और सामग्री का रोचक होना जनता के रुझान से सम्बद्ध है जिसे टीवी चैनल अच्छी तरह जानते हैं.
हिन्दी मीडिया को आश्चर्य है की प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने जन रूचि को ध्यान में रखते हुए बयान क्यों नहीं दिया ? क्यों नहीं कह दिया कि बटला हाउस से पकड़े गए छात्रों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए ? हिन्दी चैनलों की दृष्टि में मुलजिम और मुजरिम में कोई अन्तर नहीं होता. अब अपराधी और आरोपी का अन्तर स्पष्ट करना मूर्खता नहीं है तो और क्या है. प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कह दिया कि पकडे गए छात्र दिल्ली पुलिस की दृष्टि में संदेह के घेरे में हो सकते हैं, किंतु वे दहशतगर्द नहीं हैं. जब तक न्यायलय उनका अपराध घोषित न करदे उनकी स्थिति एक आम शहरी की है और जामिया हर स्थिति में उनके बचाव का मुक़दमा लडेगी. सिद्धांततः मुशीर साहब की बात कितनी ही सही क्यों न हो, किंतु आम रुझान ऐसा नहीं है. अभी हाल ही में अरुशी हत्या काण्ड के मामले में अरुशी के पिता की गिरफ्तारी के बाद मीडिया ने उन्हें और उनकी बेटी को किन-किन शब्दों से अलंकृत किया और उनकी कैसी तस्वीर खड़ी की यह सभी को मालूम है. फिर आतंकवाद के आरोपियों को कैसे बख्शा जा सकता है या उनके प्रति कोई सहानुभूति कैसे जताई जा सकती है. अडवानी और मोदी जैसे लोग यदि कुछ मामलों में आरोपी हैं तो उनकी बात और है. हिन्दी मीडिया के बीच उनकी एक छवि है और उनका नाम उसी छवि के अनुरूप आदरपूर्वक लिया जायगा. वे न तो अरुशी के पिता हैं और न ही आतंकवाद के आरोपी.
सत्ताईस सितम्बर को हुए धमाके में आतंकवादियों को सबने भरे बाज़ार के बीच से मोटर सायकिल पर जाते देखा, नौ वर्षीय बच्चे को उनके पीछे दौड़ते देखा, किंतु किसी भी व्यक्ति ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उनका पीछा नहीं किया , उन्हें पकड़ने का प्रयास नहीं किया और दिल्ली की चौकस पुलिस तो घटना घटित होने के डेढ़ घंटे बाद आई. हिन्दी मीडिया पुलिस में कोई दोष नहीं देखता. कम-से-कम आतंकवाद के मामले में पुलिस की कारगुजारी प्रशंसनीय ही बतायी जाती है. बात भी ठीक है.पुलिस का प्रोत्साहन ज़रूरी है.
प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने तो अभिभावक होने के रिश्ते से पकड़े गए छात्रों की इस मुसीबत की घड़ी में कानूनी तथा आर्थिक सहायता देने की ही बात की, अर्जुन सिंह ने उन्हें इसकी अनुमति भी दे दी और अशोक वाजपेयी जैसे समझदार व्यक्ति ने प्रोफेसर हसन का खुलकर समर्थन भी कर दिया. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील और जनहस्तक्षेप टीम के सदस्य प्रशांत भूषण ने घटनास्थल को अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखने के बाद पुलिस इनकाउन्टर की पूरी कथा में ही अनेक सूराख देख डाले और सर्वोच्च न्यायालय के एक सीटिंग जज द्वारा इसकी जांच की मांग भी कर ली. अब आप ही बताइये यह सब बातें बेचैन करने की हैं या नहीं. हिन्दी मीडिया जो अपने मार्केट से कहीं अधिक राष्ट्र हित की बात सोचता है, प्रोफेसर मुशीरुल हसन और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वालों की बातें सुन-सुन कर बेचैन न हो तो क्या करे ?
*****************************
टिप्पणी : ( १ ) टीवी के सभी न्यूज़ चैनलों पर यही नाम बताया गया था. किंतु आज पहली अक्तूबर के हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार इस व्यक्ति का नाम नानकचंद जाटव है और यह खंदेहो, टप्पल जनपद अलीगढ का रहने वाला है. इस व्यक्ति ने नया सिम कार्ड जिससे फोन किया गया था, बल्लभगढ़ से अपने वोटर कार्ड के आधार पर खरीदा था.

मक्के की सरज़मीन पे

मक्के की सरज़मीन पे, काबा नहीं मिला।
देखा जो दिल में झाँक के, सब कुछ यहीं मिला।
गुम हो गया था मैं भी ज़माने की भीड़ में,
तनहा हुआ तो राज़े-दिले-हमनशीं मिला।
सजदे में सर झुकाया था मैंने खुलूस से,
लम्स उसके हाथ का मुझे जेरे-जबीं मिला।
इन मंजिलों से पहले था बिल्कुल मैं नाशानास,
निकला तो गरदे - राह में अर्शे - बरीं मिला।
देखा जो प्यार से, तो सभी थे मेरी तरह,
दुश्मन न पाया कोई, न कोई लईं मिला।
मुझको ही कर दिया था जहाँ ने सुपुर्दे-ख़ाक,
मैं ही था वो खज़ाना जो ज़ेरे-ज़मीं मिला।
*********************

अब क्या गिला करें / सैफ़ जुल्फी

अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।

हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।

दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,

चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।

अपने लहू की आग हमें चाटती रही,

अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।

यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,

फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।

धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,

देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।

वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,

यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।

जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,

वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।

*********************

शनिवार, 27 सितंबर 2008

घटाओं में उभरते हैं

घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।

कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।

मेरे ख़्वाबों में आ जाती हैं क्यों ये चाँदनी रातें,

हथेली पर लिये रंगीन खाके बेशुमार उसके।

मैं था हैरत में, आईने में कैसा अक्स था मेरा,

गरीबां चाक था, मलबूस थे सब तार-तार उसके।

ज़माना किस कदर मजबूर कर देता है इन्सां को,

सभी खामोश रहकर झेलते हैं इंतेशार उसके।

फ़रिश्ता कह रही थी जिसको दुनिया, मैंने जब देखा,

बजाहिर था भला, आमाल थे सब दागदार उसके।

मुहब्बत का सफर 'जाफ़र' बहोत आसां नहीं होता,

रहे-पुरखार उसकी, आबला-पाई मेरी,गर्दो-गुबार उसके।

*******************

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ देख के मुझे।
क्या गहरी नींद आयी है खंजर तले मुझे।
मैं सुब्हे-रफ़्ता की हूँ शुआए-फुसूं-तराज़,
लगते नहीं हैं शाम के तेवर भले मुझे।
खुशहाल ज़िन्दगी से न था क़ल्ब मुत्मइन,
फ़ाकों की रहगुज़र ने दिए तजरुबे मुझे।
मैं अपनी मंज़िलों का पता जानता हूँ खूब,
गुमराह कर न पायेंगे ये रास्ते मुझे।
वाक़िफ़ रुमूज़े-इश्क़ से मैं यूँ न था कभी,
रास आये तेरे साथ बहोत रतजगे मुझे।
कब देखता हूँ तेरे एलावा किसी को मैं,
कब सूझता है तेरे जहाँ से परे मुझे।
सुनता रहा मैं गौर से कल तेरी गुफ्तुगू,
मफहूम तेरी बातों के अच्छे लगे मुझे।
ग़म अपने घोलकर मैं कई बार पी चुका,
अब हादसे भी लगते नहीं हादसे मुझे।

***************

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

खामोश होगी कब ये ज़ुबाँ


खामोश होगी कब ते ज़ुबाँ कुछ नहीं पता।

बदलेगा कब निज़ामे-जहाँ कुछ नहीं पता।

कब टूट जाए रिश्तए-जाँ कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता।

चेहरों पे है सभीके शराफ़त का बांकपन,

मुजरिम है कौन-कौन यहाँ कुछ नहीं पता।

सबके माकन फूस के हैं, फिर भी सब हैं खुश,

उट्ठेगा कब कहाँ से धुवां कुछ नहीं पता।

मंज़िल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी मगर,

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता।

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया,

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता।

कल आसमान छूती थीं जिनकी बलंदियाँ,

कब ख़ाक हो गए वो मकाँ कुछ नहीं पता।

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक नाम,

फिर क्यों है फ़िक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता।

शाखें शजर की कल भी रहेंगी हरी-भरी,

कैसे कोई करे ये गुमाँ कुछ नहीं पता।

******************