मंगलवार, 2 सितंबर 2008

सफ़र में दिल को / क़ालिब मिर्ज़ापूरी

सफ़र में दिल को मयस्सर कहीं क़रार न था।
कई दरख्त मिले, कोई साया-दार न था।
जो मोतबर थे बज़ाहिर, वो दूर-दूर रहे
उसी ने साथ दिया जिसका एतबार न था।
बशर-नवाज़ों में उसका शुमार होता था,
वो आदमी जिसे इंसानियत से प्यार न था।
नज़र मिला न सकी मुन्सफी अदालत से,
सज़ा मिली थी उसे जो कुसूरवार न था।
मेरे नसीब में लिख दी गई थी महरूमी,
मेरे चमन के लिए मौसमे-बहार न था।
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तितलियाँ दामन में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

तितलियाँ दामन में, जुगनू मुट्ठियों में ले गया.
मेरा बचपन फिर मुझे हमजोलियों में ले गया.
हड्डियों पर थे टंगे, जिस गाँव में खस्ता लिबास,
ज़ह्न मेरा, फिर मुझे उन बस्तियों में ले गया.
इस से पहले मैं समंदर में कभी उतरा न था
चाँद अपने साथ मुझको पानियों में ले गया.
उसने आवारा ख़यालों को भटकने कब दिया,
क़ैद करके उनको, दिल की वादियों में ले गया.
हादसों का शह्र के, एहसास ही कब था उसे,
काँप उठा वो, जब उसे मैं ज़ख्मियों में ले गया.
कुछ तो कहना था उसे, वरना वो सबके सामने
क्यों मुझे उस बज़्म से, तनहाइयों में ले गया.
नक्श उसका फिर भी मुझसे नामुकम्मल ही रहा
गो मैं अपनी फ़िक्र सारे ज़ावियों में ले गया.

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कामयाबी तो हुई / मृदुल तिवारी

कामयाबी तो हुई हासिल मगर इस दौर में।
क्या कहें, कितना रहे हम बे-असर इस दौर में।
देखिये सब मिल रहे हैं एक जैसी शक्ल में,
क्या सेहर, क्या शाम, कैसी दोपहर इस दौर में।
साज़िशें बाहर हुईं और हादसे घर में हुए,
आदमी फिर भी है कितना बे-ख़बर इस दौर में।
जंगलों की वह्शतें जब से शहर में आ गयीं,
दूर हम से हो गया जंगल का डर इस दौर में।
पत्थरों की बात क्या पत्थर तो पत्थर हैं 'मृदुल'
चोट करते मिल गए शीशे के घर इस दौर में।
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बदन की खुशबू / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

रौज़ने-ख्वाब से आती है बदन की खुशबू।
है यक़ीनन ये उसी गुंचा-दहन की खुशबू।
उसने परदेस में की मेरी जुबां में बातें
मुझ को बे-साख्ता याद आई वतन की खुशबू।
उस मुसव्विर को बहर-तौर दबाया सब ने
रोक पाया न मगर कोई भी फ़न की खुशबू।
धूप सर्दी में पहेनती है गुलाबी कपड़े
बंद कमरों से भी आती है किरन की खुशबू।
पास आये तो लगे दूध सी नदियों का बहाव,
हो जो रुखसत तो मिले गंगो-जमन की खुशबू।
मेरा घर नीम बरहना है किवाड़ों के बगैर,
मेरे घर आयेगी क्यों उसके फबन की खुशबू।
जाने ले जाये कहाँ ये मेरी आशुफ्ता-सरी,
मुझको महसूस हुई दारो-रसन की खुशबू।
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चढा हुआ था जो दरिया / तनवीर अब्बास रिज़वी

चढ़ा हुआ था जो दरिया वो पार कर न सका ।
मैं एक बार जो डूबा तो फिर उभर न सका ।
वही कसक है, वही दर्द है, वही है तड़प,
वो एक ज़ख्म जो दिल पर लगा था भर न सका ।
मुझे ग़मों का ही मौसम हमेशा रास आया,
किसी खुशी का कभी इंतज़ार कर न सका ।
मेरी निगाह तुझे छू के ही पलट आई,
मैं बूँद-बूँद तेरे जिस्म में उतर न सका ।
नदी तो दिल में समंदर के डूब जाती है,
नदी के दिल में समंदर कभी उतर न सका ।
हवा के सामने 'तनवीर' क्या दिए की बिसात,
भड़क के बुझ गया, कुछ देर भी ठहर न सका ।

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बेनियाज़ी में / वीरेन्द्र अग्निहोत्री

बे-नियाजी में तेरे दोनों जहाँ छोड़ चले।
हमको कुछ याद नहीं ख़ुद को कहाँ छोड़ चले।
ये तो मालूम है भटकेगा सफ़ीना तनहा,
नाखुदा फिर भी कनारों का जहाँ छोड़ चले।
चाहे जो रंग भरे कल ये ज़माना उनमें
हम तो कागज़ पे लकीरों के निशाँ छोड़ चले।
इसको बुतखाना कहो, काबा कहो या कुछ और
तेरी देहलीज़ पे सजदों के निशाँ छोड़ चले।
साकिया हैं ये मेरी आखरी यादों के नुकूश
हम जो पैमानों पे होंटों के निशाँ छोड़ चेले।
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इतनी ही शिक्षा दी / रामप्रसाद दीक्षित

दूसरों को प्रकाश देने का अर्थ है
स्वयं को जलाना।
दीप ने केवल इतनी ही शिक्षा दी
और कहा इसको किसी से मत बताना
वरना दूसरों के लिए
छोड़ देगा तपना ज़माना।

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थोडी देर मुझे जलने दो / साधुशरण वर्मा

पुरवैया के मस्त झकोरों ! थोडी देर मुझे बहने दो.
अरे गगन के मंजु प्रदीपो, थोडी देर मुझे जलने दो.

तुम तो जग को जन्म-जन्म से, आलोकित करते ही आये.
नील गगन में और न जाने, कितने जनम रहोगे छाये
जीवन की है आज दिवाली, फैली मन की मादक लाली
मुझको श्वासों की बाती से, दीपित प्राण कथा कहने दो.

ओ पूनम के चाँद तुम्हें तो, सदा इसी पथ पर चलना है
लहर जगाकर उदित हुए तुम, स्वप्न सजाकर ही ढलना है.
छोटा सा जीवन पथ मेरा, चले चार पग हुआ सवेरा,
सपनों की मादक बेला में, थोडी देर मुझे ढलने दो.

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सोमवार, 1 सितंबर 2008

देश के स्वप्नों का एक नक्शा / शैलेश ज़ैदी

नर्म और गुदाज़ हाथों में
गुलाबों की सुगंध तलाश करना
सैकड़ों ऐसे हाथों को नकारना है
जो काँटों की चुभन का दर्द जी कर भी
गुलाबों की खेती करते हैं
खुशबुएँ उगाते हैं
और दिन-रात मरते हैं

यह हाथ !
न कभी हँसते हैं,
न गुनगुनाते हैं
बस देखते रहते हैं
अपनी खुरदुरी, लहूलुहान हथेलियों में
अपने देश के स्वप्नों का एक नक्शा।
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जाने उन आंखों में कैसी शाम थी / सलाहुद्दीन परवेज़

मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं
चाँदनी के देस में बीमार मेरा ज़ह्र है
जिसके हाथों में गुलाबी रंग हो पकडो उसे
जिसकी झीलों में शफक की ताज़गी हो
उसकी आँखें छीन लो
मेरी खुशियाँ, मेरी झोली, मेरे अरमां धूल हैं

जाओ अब मेरा तरन्नुम
रेत की तारीकियों में डाल दो
सारी नज्में, सारी गज़लें
दास्तानें, अनगिनत प्यारी किताबें फाड दो
क्योंकि मैंने याद के सीने पे एक दिन लिख दिया
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी, नम ज़िन्दगी
सादा कापी पर कई शक्लें बनाकर सो गई
मेरे कमरे से हवा मुझको उड़ाकर ले गई
घर के आँगन से तेरी बातों की मेहँदी उड़ गई
जाने उन आंखों में कैसी शाम थी।
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