बुधवार, 9 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.2

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
दीन शब्द को सामान्यीकृत करके धर्म या मज़हब के साथ एकस्वर करना चिंतन के सारे दरवाज़ों को बंद करना है. मनुष्य चाहता भी यही है. बाप-दादा के मज़हब पर रहने में ही भलाई है. चिंतन की आज़ादी देने से बाप-दादा के मज़हब को खतरा हो सकता है. चिंतन का सम्बन्ध अक्ल से है और अक्ल अच्छे-बुरे की पहचान कराती है. इसलिए अक्ल की खिड़कियाँ अगर बंद कर दी जाएँ तो अच्छाई-बुराई की परख की संभावनाएं भी समाप्त हो जायेंगी. और बस, बाप-दादा जिस धर्म का पालन करते आए हैं, उसी पर चलते रहो, कुछ सोचने-समझने की ज़रूरत ही क्या है की स्थिति पैदा हो जायेगी. नबीश्री ने जब मक्के के मुशरिकों को दीन की ओर बुलाया तो उनके सामने यही समस्या थी. बाप-दादा से चले आ रहे धर्म को छोड़ना उनके लिए असंभव सा प्रतीत होता था. श्रीप्रद कुरआन ने उनके समक्ष महत्त्वपूर्ण प्रश्न रखा -"क्या अपने पूर्वजों के रास्ते पर ही चलते जाओगे चाहे उन्होंने अक्ल से काम न लिया हो ?" स्पष्ट है कि अपने लिए दीन को चुनना अक्ल का काम है. मुसलामानों ने भी आगे चलकर जब वह विभिन्न सम्प्रदायों में बँट गए, ऐसा ही किया. इस्लामी शरीअताचार्यों ने अपने-अपने मस्लकों के क़िले निर्मित कर लिए और दूसरे मस्लकों के लिए आक्रामक रुख अख्तियार किया. मज़हब का स्वभाव ही यही है. अल्लामा इकबाल लाख कहते रहें -'मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना' किंतु सच्चाई यही है कि मज़हब इसके अतिरिक्त और कुछ सिखाता ही नहीं. हाँ 'आपस' शब्द का अर्थ यदि एक मज़हब मानने वालों के बीच आपसी रिश्ते से है, तो इकबाल बिकुल ठीक कहते हैं. एक मसलक, एक सम्प्रदाय, एक मज़हब, एक धर्म के लोग तो आपस में मिल-जुल कर रहेंगे ही. दीन की स्थिति इस से भिन्न है. वह मज़हब, मसलक या धर्म की तरह छोटे-छोटे दायरे नहीं बनाता. वह परम सत्ता की अहदीयत (विशिष्टता) और वाहिदीयत (एकत्त्व) को मध्य का बिन्दु स्वीकार करते हुए ऐसा वृत्त बनाता है कि केन्द्रीय बिन्दु अर्थात परम सत्ता की विशिष्टता और उसके एकत्त्व की ओर, वृत्त की किसी दिशा से चलने वाला बराबर का फासला तय करता है और मध्य के बिन्दु पर आकर बिना किसी भेद-भाव के एक हो जाता है. ध्यान देने की बात यह है कि वृत्त का केन्द्रीय बिन्दु होते हुए भी वह अदृश्य रहता है. अब यदि कोई केन्द्र बिन्दु को किसी एक दिशा में थोड़ा इधर उधर खिसका दे और वृत्त को यथास्थान रहने दे. फिर यह समझ ले कि वह केन्द्रीय बिन्दु से अधिक निकट है तो यह उसका मात्र भ्रम होगा. कारण यह है कि हर केन्द्र-बिन्दु अपना एक अलग वृत्त बनाता है. एक ही वृत्त के कई केन्द्र-बिन्दु नहीं हो सकते. बात कड़वी अवश्य है किंतु मुस्लिम आचार्यों ने ऐसा ही किया.
मज़हब या धर्म का छोटे-छोटे दायरों में सिमटा होना ही उनके पारस्परिक वैमनस्य का कारण बनता है. किसी मज़हब को स्वीकार करना या न करना मनुष्य के अधिकार में है. किंतु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ यह मनुष्य यह जानने को उत्सुक रहता है कि इलाज के लिए कौन डाक्टर अच्छा होगा, मुक़द्दमे के लिय किस वकील को करना ठीक है, शिक्षा के लिए किस संस्था को चुना जाय, वहीं लोक और परलोक के सन्दर्भ में एक क्षण को भी यह सोचना-विचारना नहीं चाहता कि इस दिशा में जीवन का प्रकाश कहाँ से प्राप्त किया जाय. निर्धन, विपन्न, अशिक्षित, पिछडे समाज की बात और है. उसके पास कोई विकल्प नहीं होता. किंतु जो स्वयं को बुद्धिजीवी समझते और मानते हैं, वे परम्परा की लीक क्यों पीटते हैं, क्यों पैतृक धर्म का पालन करते हुए अक्ल की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद रखते हैं, यह विचारणीय अवश्य है. मृग-मरीचिका को पानी समझ कर उसके लिए दौड़ते चले जाना बद-अक़ली नहीं है तो और क्या है !
वह धर्म, मज़हब, मसलक, पंथ या सम्प्रदाय जो मानव जाति को टुकडों में बांटता हो, और कुछ भले ही हो, सत्य नहीं हो सकता, और इस आधार पर दीन की परिधियों में भी उसे नहीं रख जा सकता, इतना निश्चित है. ठहरा और रुका हुआ पानी किसी धर्म और मज़हब में शुद्ध नहीं माना जाता. फिर चिंतन का गतिशील और प्रवाहमय न होना और उसे मज़हब और धर्म के सीमित ट्रेडमार्क में सील कर देना किस प्रकार उचित ठहराया जा सकता है. मज़हब के नाम पर जितनी जंगें होती हैं, जितने दंगे- फ़साद होते है, जितना रक्त बहाया जाता है वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. उसका मूल कारण यह है कि जहाँ दीन अपने मूल में आध्यात्मिक है, वहीं मज़हब का आधार बाह्याचार और कर्मकांड हैं. और मजहबों की बात जाने दीजिय, मुसलमान विभिन्न मस्लकों में केवल इसलिए बँटे हैं कि शरीयत-प्रदत्त बाह्याचार ही उनकी मज़हबी सोच का मूलाधार हैं. शरीयत का मूल उद्देश्य है दीन की आत्मा को सुरक्षित रखना और दीन में आस्था रखने वालों को उसके अनुरूप देखना. स्थिति यह है कि कौन नमाज़ कैसे पढता है, वजू किस प्रकार करता है, रोजा कब खोलता है, किसकी कौन सी मस्जिद है, दाढी रखता है या नहीं, रखता है तो उसका साइज़ क्या है, पाजामे के टखने खुले रखता है या ढके हुए, अजादारी और ताजियेदारी क्यों करता है, काफिरों के साथ उसका क्या सुलूक है, खलीफाओं को किस रूप में स्वीकार करता है, हदीसों को कितना महत्त्व देता है, यदि महत्त्व देता है तो किन हदीसों को प्रामाणिक मानता है, श्रीपद कुरआन की तिलावत करता है या नहीं, अगर करता है तो उसका शीन-काफ दुरुस्त है या नहीं, जैसी ढेर सारी छोटी-छोटी बातों में उलझा हुआ शरीयताचार्यों का समूह आज इस्लाम की पहचान बन कर रह गया है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस्लाम शब्द 'सिल्म' से बना है जिसका अर्थ होता है गर्दन झुकाना. इस्लाम का अर्थ है अपना सब कुछ परम सत्ता को समर्पित कर देना. समर्पण के लिए अंग्रेज़ी में दो शब्द हैं. एक है सरेंडर और दूसरा है सबमिशन. सरेंडर किसी विवशता या दबाव के नतीजे में होता है जबकि सबमिशन अपनी खुशी से किया जाता है. इस्लाम किसी दबाव या ज़ोर-ज़बरदस्ती की बात नहीं करता. वह चाहता है कि अल्लाह के बन्दे अपनी खुशी से ख़ुद को अल्लाह के सुपुर्द करें. श्रीप्रद कुरआन ने स्पष्ट शब्दों में कहा है "ला इक्राहि फिद्दीन" दीन में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है. दीन जिस ख़ुद सुपुर्दगी या सबमिशन की बात करता है वह वस्तुतः लघु से विराट की ओर बढाया गया एक क़दम है. पानी की बूँद कितनी ही लघु क्यों न हो जब वह दरया को समर्पित हो जाती है तो उसका अस्तित्त्व समाप्त नहीं होता, हाँ दरिया की विराटता के साथ जुड़कर वह स्वयं भी विराट हो जाती है. अब जो लोग उसकी लघुता तलाश करना चाहते हैं उन्हें वह दिखायी नहीं देती.
नबीश्री की जिंदगी में भी जिन लोगों ने इस्लाम स्वीकार किया उनमें दो प्रकार के लोग थे. एक तो वे थे जिन्होंने अपनी खुशी से इस्लाम स्वीकार किया था. दूसरे वे थे जिनके समक्ष कोई विकल्प नहीं रह गया था. मक्का विजय के बाद जो लोग मुसलमान हुए उनमें से अधिकतर निश्चय ही दूसरी श्रेणी के थे. यह लोग संभ्रांत, संपन्न और शक्तिशाली थे. परिणाम यह हुआ कि नबीश्री के निधनोपरांत, कुछ ही वर्षों के भीतर, इस्लाम की व्याख्या राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली और शक्ति-संपन्न समुदाय के हाथ में आ गई.
मुसलामानों ने सामान्य रूप से आतंरिक सत्य (दाखिली हक़ायक़) के बजाय बाह्य सत्य (खारजी हक़ायक़) को चुना. नबीश्री दाढी कैसी रखते थे, सिर के बालों की क्या स्थिति थी, आंखों में कैसा सुरमा लगाते थे, खिजाब किस तरह करते थे जैसी बातों पर ही मुसलामानों की दृष्टि केंद्रित थी. इस तथ्य पर बहुत कम विचार किया गया कि उनका अखलाक कैसा था, काफ़िरों और मुशरिकों के साथ उनका क्या बर्ताव था, मित्रों को किस रूप में बरतते थे, पति, पिता, भतीजे और भांजे के रूप में वे कैसे थे, उन्होंने किसके साथ नेकियाँ कीं, किसके लिए गज़बनाक हुए, किसको आत्मीय भाव से पास बिठाया, किसे अपनी गोष्ठी से हटा दिया, सिर पर पत्थर पड़े और लहू-लुहान हो गए तो गुस्सा क्यों नहीं किया, उल्टे अत्याचार करने वालों के लिए दुआएं कीं कि वे उन्हें पहचानते नहीं, अल्लाह उन्हें समझ अता करे. मुसलामानों ने इन तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी, यह एक विचारणीय प्रश्न है. किंतु इतना तो निश्चित है कि यही बातें दीन को मज़हब में तब्दील करती चली गयीं.
दुखद स्थिति यह है कि प्रारम्भ से ही मुसलामानों की दृष्टि बाह्य-सत्य (खारजी हक़ायक़) पर केंद्रित रही. नबीश्री (स.) ने अज़ान के लिए जब श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) को मनोनीत किया तो कुछ मुसलामानों को यह बात पसंद नहीं आई. एक कारण तो यह था कि श्रद्धास्पद हज़रत बिलाल (र.) हबश के रहने वाले थे और काले थे.दूसरा यह कि उनका उच्चारण भी अरबों के उच्चारण से पर्याप्त भिन्न था. वह 'श' को 'स' उच्चारित करते थे. पहली बात पर तो आपत्ति इसलिए नहीं कर सके कि उन्होंने नबीश्री (स.) से बार-बार सुन रखा था कि इस्लाम गोरे और काले में कोई भेद नहीं करता. अब सोचा कि आपत्ति यदि दूसरी बात को लेकर की जाय तो नबीश्री (स.) उसे निश्चय ही स्वीकार कर लेंगे. कुछ सहाबी नबीश्री की सेवा में उपस्थित हुए और बड़े विनम्र भाव से बोले. "हमें दुःख है, आपने बिलाल को मुवज़्ज़िन बना दिया !" नबीश्री (स.) ने पूछा "तो इसमें क्या बुराई है ?" उसी विनम्रता से बोले " हुज़ूर वह तो 'शीन' साफ़ नहीं कहते. 'अश्हदुअन्न' को 'अस्हदुअन्न' कहते हैं." नबीश्री (स.) ने उत्तर दिया "सीनु बिलालिन शीनुन इन्दल्लाह" यानी "बिलाल का सीन अल्लाह के निकट शीन है." गोया नबीश्री ने संकेत कर दिया कि इस्लाम नीयत देखता है उच्चारण नहीं, अंतरात्मा देखता है बाह्याचार नहीं.
अल्लाहु-अकबर का नारा मुसलामानों के लिए नारए-तकबीर है और इसे सामान्य मुसलमान इस्लामी संस्कृति से जोड़ कर देखता है. वैसे तो संस्कृति हिंदू मुसलमान या ईसाई नहीं होती. वह मूल रूप से भौगोलिक चौहद्दियों से नियंत्रित होती है. फिर भी यदि इसे इस्लामिक कल्चर का हिस्सा मान भी लिया जाय, तो यह इस्लामिक कल्चर उस समय होगा जब इसका सही प्रयोजन हो. उद्देश्य का सही होना अनिवार्य होगा. यदि बेगुनाहों के घर जलाने में अल्लाहु-अकबर के नारे लगाए जाएँ तो निश्चित रूप से उसका इस्लाम से कोई सम्बन्ध न होगा. नाबीश्री (स.) के नवासे हज़रत इमाम हुसैन (र.) को जिन लोगों ने शहीद किया वह भी अल्लाहु अकबर के नारे लगा रहे थे. क्या यह भी इस्लामी कल्चर है ? एक अरबी शायर ने इस अवसर के लिए कहा था-" वयुकब्बिरून बि'अन्कुतिल्त व् इन्नमा / क़तलू ब'क अत्तक्बीरा व् तहलीला." अर्थात अरे ! ये आपको क़त्ल करके तकबीर के नारे लगा रहे हैं. हालांकि सत्य यह है कि ये आपके साथ तक्बीरो-तहलील के गले पर छुरी चला रहे हैं. आज भी दंगे-फ़साद और आतंकवादी घटनाओं के अवसर पर 'अल्लाहु-अकबर' के नारे लगाकर वास्तव में "तकबीर" (परम सत्ता के सर्व-शक्तिमान होने की घोषणा) के गले पर छुरी चलाई जा रही है. वस्तुतः किसी भी कृत्य को उस समय तक इस्लाम से नहीं जोड़ा जा सकता जब तक उसका उद्देश्य इस्लाम के स्वभाव के अनुरूप न हो. आज अल्लाहु-अकबर के नारे से दीन की आत्मा पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है और उसका स्थान मज़हब और सियासत ने ले लिया है. हिन्दुओं में 'हर हर महादेव' की भी यही स्थिति है. इन नारों के माध्यम से अल्लाह की श्रेष्ठता घोषित करना अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है अपने गुट या समुदाय का वर्चस्व घोषित करना.यहाँ मुझे 1980 में लिखी गई अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर याद आ गए -"हम तो बस रोशनी साथ लेकर चले / क्या खता थी हमारी कि पत्थर चले" और "निकले 'हर हर महादेव' घर फूंकने / जान लेने को "अल्लाहु अकबर" चले" कदाचित इसीलिए इस्लाम सियासत की तालीम नहीं देता. वह हिकमत ( दीन की सीमाओं में रहते हुए समय और परिस्थितियों की नब्ज़ को पहचानना) पर बल देता है. सियासत भी अरबी शब्द है किंतु मेरी जानकारी में श्रीप्रद कुरआन में इस शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ है. जबकि सच्चाई यह है कि मुस्लिम धर्माचार्यों द्बारा इस्लामी-सियासत शब्द का खूब-खूब प्रयोग होता है. मज़हब में सियासत के लिए भले ही जगह हो, दीन में सियासत के लिए कोई जगह नहीं होती.
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मंगलवार, 8 जुलाई 2008

अज्मल अज्मली की एक ग़ज़ल

वक़्ते-सफ़र क़रीब है बिस्तर समेट लूँ
बिखरा हुआ हयात का दफ्तर समेट लूँ
फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको
मैं दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूँ
गैरों ने जों सुलूक किए उनका क्या गिला
फेंके हैं दोस्तों ने जों पत्थर समेट लूँ
कल जाने कैसे होंगे कहाँ होंगे घर के लोग
आंखों में एक बार भरा घर समेट लूँ
सैले-नज़र भी ग़म की तमाज़त से खुश्क हो
वो प्यास है, मिले तो समंदर समेट लूँ
'अजमल' भड़क रही है ज़माने में जितनी आग
जी चाहता है सीने के अन्दर समेट लूँ
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सोमवार, 7 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.1

परिचयात्मक टिप्पणी

इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रो. शैलेश ज़ैदी के इस्लाम सम्बन्धी विचार इस उद्देश्य से प्रस्तुत किये जा रहे हैं कि इस्लाम को लेकर अनेक ऐसी बातें प्रचलित हैं जिनका वास्तविक इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है. प्रो. ज़ैदी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अरबी, फ़ारसी आदि अनेक भाषाओँ के ज्ञाता हैं और श्रीप्रद कुरान पर अच्छी दृष्टि रखते हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष और आर्ट्स फैकल्टी के डीन रह चुके हैं. नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) के पावन चरित्र पर उनकी काव्य-पुस्तक "असासए-इस्लाम" पर्याप्त चर्चित हो चुकी है. फिर भी यह स्तम्भ खुला मंच है. सार्थक, तर्कयुक्त और स्तरीय विचारों का स्वागत किया जायेगा और इस कृति-पुंज (ब्लॉग) पर उचित स्थान दिया जायेगा. [प. फ़ा.]

इस्लाम 'दीन' है, धर्म या मज़हब नहीं

सामान्य रूप से मुसलमान इस्लाम को मज़हब समझते हैं. मज़हब अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ रास्ता, आस्था, पंथ, मत इत्यादि होता है. सम्पूर्ण कुर'आन मजीद में 'मज़हब' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है. होता भी कैसे. जब इस्लाम मज़हब था ही नहीं तो इस शब्द का प्रयोग क्यों होता.? श्रीप्रद कुर'आन को समझने के लिए अरबी भाषा का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है. यदि ऐसा होता तो अरबों के बीच श्रीप्रद कुर'आन में यह आयत किसी स्थिति में अवतरित न होती -"ये कुर'आन में गौर क्यों नहीं करते, क्या इनके दिलों पर ताले लगे हुए हैं ? गौर करना अक्ल या विवेक का काम है. जो अक्ल या विवेक के दरवाज़े बंद कर देता है वह श्रीप्रद कुर'आन को नहीं समझ सकता. मुसलामानों का बड़ा वर्ग 'अक्ल' में विशवास नहीं रखता. वह ज़हानत (बौद्धिकता) और अक्ल को एक समझता है और उसका ख़याल है कि अक्ल मनुष्य को गुमराह कर सकती है. वह यह नहीं समझना चाहता कि नीर-क्षीर विवेक का नाम है अक्ल. अक्ल वह है जो इंसान को अच्छे-बुरे की तमीज सिखाती है. जबकि ज़हानत इंसान को अच्छाई और बुराई दोनों दिशाओं में ले जा सकती है.
श्रीप्रद कुर'आन में 'अक्ल' के पक्ष में बयालीस आयतें उपलब्ध हैं. मुसलमान इन आयातों पर विचार नहीं करना चाहता. उर्दू भाषा में दो शब्द प्रचलित हैं. एक ऐन से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है विवेकशीलता और दूसरा अलिफ़ से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है अल्पसंख्यक. भारत में मुसलमान शरीअताचार्यों के लिए दूसरा शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है. पहले शब्द से उन्हें शरी'अत-विरोधी होने की गंध आती है. ऐसी स्थिति में श्रीप्रद कुर'आन कुछ भी कहता हो इस्लाम को मज़हब मान लेने से उनके स्वनिर्मित सम्प्रदायों की रक्षा होती है. यदि वे इस्लाम को दीन मानते तो विभिन्न सम्प्रदायों में न बंटते. कारण यह है कि दीन दो चार दस नहीं होता जब कि मज़हब या मसलक सैकड़ों हो सकते हैं.
श्रीप्रद कुर'आन ने जिस प्रकार 'ला इलाह, इल्लल्लाह' ( नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्ल्लाह के) के माध्यम से परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु स्थिर किया, उसी प्रकार 'इन्नद-दीन इन्दल्लाहिल-इस्लाम' (परम सत्ता के निकट यदि कोई दीन है तो वह इस्लाम है) के माध्यम से आस्था के एकत्व का बीज-बिन्दु भी स्थिर किया. श्रीप्रद कुर'आन ने इस आस्था को ही सर्वत्र विशेष महत्त्व दिया है. ध्यान से देखना चाहिए कि श्रीप्रद कुर'आन में कहीं भी मुसलामानों को संबोधित नहीं किया गया. जहाँ भी संबोधित किया गया है ईमान वालों को संबोधित किया गया है. स्पष्ट है कि मुसलमान होना सही अर्थों में ईमान वाला होने का पर्याय नहीं है. इस्लाम के अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (स.) का कृपाशील व्यक्तित्व भी केवल मुसलामानों के लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है. उन्हें "रह्मतुल्मुस्लिमीन" नहीं, 'रहमतुल-आलमीन" कहा गया है.
नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) ने मक्का के मुशरिकों का ध्यान आस्था के जिस बीज-बिन्दु की ओर आकृष्ट किया वह परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु था. उन्होंने यह नहीं कहा कि "कूलू मुहम्मदुन रसूलल्लाह" अर्थात कहो कि मुहम्मद (स.) अल्लाह के रसूल हैं. उन्होंने सदैव यही फरमाया कि "कूलू ला-इलाह-इल्लल्लाह तुफ़्लहू" अर्थात कहो कि नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्लाह के, तुम्हारी भलाई होगी. इस 'कहो' का यह अर्थ हरगिज़ नहीं है कि किसी समय खड़े होकर नारा लगा लो. यदि अरबों को आस्था का यह बीज-बिन्दु दिया जाता कि "अल्लाहु इलाहुन" अर्थात अल्लाह उपास्य है, तो पूरा अरब बिना किसी आपत्ति के इसे स्वीकार कर लेता. कारण यह है कि अल्लाह को तो वे पहले से मानते थे. किंतु दुशवारी यह थी कि अल्लाह से इतर भी बहुतों को उपास्य मानते थे. सच्चाई यह है कि अरब के मुशरिकों को अल्लाह को मानने में आपत्ति नहीं थी, उन्हें अल्लाह को एकमात्र परम सत्ता मानने में आपत्ति थी. इस्लाम की विशेषता यह है कि उसने बहुत से खुदाओं को एक कर दिया( अजअललअलिहत इलाहौं वाहिदन ).
दीन शब्द का अर्थ शब्दकोशों में तलाश करना पर्याप्त भ्रामक हो सकता है. जो लोग श्रीप्रद कुरआन को आसमानी ग्रन्थ मानते हैं उन्हें मनुष्य के बनाए हुए शब्दकोशों में भटकने के बजाय श्रीप्रद कुरआन में ही इस शब्द का अर्थ खोजना चाहिए. ध्यान देने की बात यह है कि अल्लाह की प्रशस्ति और प्रशंसा के बाद सूरह फातिहा में सबसे पहले जिस शब्द से परिचित कराया गया वह दीन शब्द है - "मालिकि-यौमिद्दीन" अर्थात न्याय के दिन का स्वामी. श्रीप्रद कुरआन के कुछ व्याख्याता और अनुवादक इसका अर्थ 'इन्साफ के दिन का मालिक' भी करते हैं. किंतु इन्साफ करने वाला मुंसिफ कहलाता है और अल्लाह के नामों में उसका कोई नाम मुंसिफ नहीं है. इन्साफ बराबर से आधा-आधा (निस्फ़-निस्फ) कर देने को कहते हैं. इन्साफ बाह्य सुबूतों के आधार पर किया जाता है. अल्लाह अन्तर्यामी है और उसे किसी बाह्य सुबूत की अपेक्षा नहीं है . इसीलिए वह 'आदिल' है मुंसिफ नहीं. अनुवाद अद्ल के दिन का मालिक किया जाना चाहिए. स्पष्ट है कि श्रीप्रद कुरआन ने दीन का अर्थ बताया न्याय, अद्ल, जस्टिस. मज़हब या धर्म इस अर्थ का संकेत नहीं करते. श्रीप्रद कुरआन की दृष्टि में दीन वह है जो मनुष्य को सत्य और असत्य के बीच निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है. श्रीप्रद कुरआन ने भी अपना परिचय इसी ढंग से कराया है -"बैयिनातिम -मिनल्हुदा वल्फुर्कान" अर्थात जो सत्य और असत्य के मध्य विभाजक रेखा खींचता हो. अर्थात न्यायशील हो. अभिप्राय यह है कि जो श्रीपद कुरआन है वही दीन है.
आज दीन और मज़हब एक दूसरे के समानार्थक हो गए हैं. किंतु यह दीन शब्द को सरलीकृत करके उसकी आत्मा को ठेस पहुंचाना है. दीन सम्पूर्ण जनमानस के लिए परमसत्ता का एक अदभुत वरदान है जबकि मज़हब मनुष्य की बुद्धि की उपज है. जिन लोगों की दृष्टि में दीन परमसत्ता के एकत्व का परिचायक है वो इस्लाम का प्रारंभ नबीश्री हज़रत आदम से करते हैं और इस्लाम को अनादि और अनंत मानते हैं. किंतु जिनके अवचेतन में इस्लाम एक मज़हब है वो इसे कुल चौदह सौ वर्षों की चौहद्दियों में बंद कर देते हैं.
श्रीप्रद कुरआन के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सच्चे दीन की नक़्ल में बहुत से दीन बना लिए गए. किंतु सच्चा दीन एक ही है. मजहबों का एक जैसा दिखायी देना उनका एक होना नहीं है. दीन के नाम से जो इमीटेशन तैयार किये गए उन्हें श्रीप्रद कुरआन "अहवा" शब्द से याद करता है. अर्थात वासना या स्वार्थवश जन्मी इच्छाएं . रास्ते बहुत से हो सकते हैं किंतु हर रास्ता "सिराते-मुस्तकीम" अर्थात सीधा-सच्चा रास्ता नहीं हो सकता.
संसार के जितने भी मज़हब हैं उनका सम्बन्ध या तो किसी व्यक्ति विशेष से है या किसी भूभाग से. उदाहरण के तौर पर ईसाई कहने पर इस मज़हब का सम्बन्ध नबीश्री हज़रत ईसा से जुड़ता है. यहूदी मज़हब का सम्बन्ध नाबिश्री हज़रत याकूब के बेटे 'यहूदा' से है. यदि आप उन्हें इस्राईली कहें तो 'इस्राईल' स्वयं हज़रत याकूब की उपाधि है. बौद्ध मज़हब की निस्बत हज़रत महात्मा बुद्ध से है. पारसी मज़हब का सम्बन्ध फारस की धरती से है. हिंदू मज़हब हिंद की धरती से जुड़ा है. स्पष्ट है कि जब मज़हब का सम्बन्ध किसी व्यक्ति या धरती के भूभाग से होगा तो चूंकि उसकी निस्बत सीमित है इसलिए मज़हब भी सीमित ही होगा. इस्लाम की निस्बत न किसी व्यक्तित्व से है न किसी धरती से. वह हाशमी नहीं है, हिजाज़ी नहीं है, मुहम्मदी नहीं है. कुछ लोगों ने उसे दूसरे मजहबों कि नक़्ल में मुहम्मडन कहने का प्रयास किया. किंतु इस्लाम के अन्तिम नबी (स.) ने कभी यह नहीं कहा कि यह मेरा दीन है, मैं इसका प्रवर्तक हूँ. नबी श्री हज़रत मुहम्मद (स.) इस्लाम के व्याख्याता, अन्तिम नबी और रसूल हैं, प्रवर्तक नहीं.
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अमेरीकी पोते के यौमे-विलादत पर / ज़ैदी जाफ़र रज़ा


सोचता हूँ ज़हन के सारे दरीचे खोल दूँ
गुलशने-इद्राक के खुशरू बगीचे खोल दूँ
जज़्बए-दिल के तिलिस्माती गलीचे खोल दूँ
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

याद हैं जितनी दुआएं सब की सब दे दूँ तुम्हें
क़ल्ब की बालीदगी से एक टक देखूँ तुम्हें
हो बदल मुमकिन न जिसका, इस तरह चाहूँ तुम्हें
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

जानता हूँ मैं, अभी तुम हो फ़क़त इक साल के
भर दूँ आंखों में तुम्हारी, रंग इस्तक्लाल के
तुम सरापा बन सको पैकर, हसीं अफआल के
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूँ ?

कम मैं कर सकता नहीं जुग्राफियाई फ़ासले
चाह कर भी तय करूं कैसे फिज़ाई फ़ासले
ख़त्म कर देगी तुम्हारी खुश-अदाई, फ़ासले
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

आते हैं ऐसे भी लम्हे, जबके फरते-जोश में
भींच लेता हूँ ख़यालों में तुम्हें आगोश में
ये जुनूँ की कैफ़ियत होती है, पूरे होश में
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

ढाल कर अल्फाज़ में गूँ-गाँ को खुश होता हूँ मैं
देख कर खुश-खुश तुम्हारी माँ को खुश होता हूँ मैं
पुर-मसर्रत पा के लख्ते-जाँ को खुश होता हूँ मैं
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

मुस्कुराते गुल-अदा रुखसार आओ चूम लूँ
चाहता है दिल के जब भी खिलखिलाओ चूम लूँ
लब तुम्हारे हैं बहोत खुशरंग, लाओ चूम लूँ
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

गौर से देखो, तुम्हारे सामने मैं हूँ खड़ा
केक मुंह में रखदो अपने हाथ से, मैं हूँ खड़ा
लो मुबारकबाद मेरे लाडले, मैं हूँ खड़ा
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूं ?

प्यार होता है इबादत, प्यार देता हूँ तुम्हें
अपने ख़्वाबों का हसीं गुलज़ार देता हूँ तुम्हें
दिल से जो निकले हैं वो अशआर देता हूँ तुम्हें
और मैं यौमे-विलादत पर तुम्हारे क्या करूँ ?

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रविवार, 6 जुलाई 2008

कबीर एकत्ववादी ( मुवह्हिद ) थे / प्रो. शैलेश ज़ैदी


कबीर ( 1425-1505 ई0 ) के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलोचकों ने विभिन्न कोणों से विचार किया है और अपनी सीमा के अनुरूप अनेक ऐसी मान्यताएं स्थापित की हैं जिनके प्रकाश की चकाचौंध में कबीर के मूल स्वरुप की तलाश पर्याप्त दुष्कर हो गई है. नाभादास के भक्तमाल (1600 ई0), अनंतदास की 'कबीर साहब की परचई और दरिया साहब के ज्ञानदीपक की सामग्री के आधार पर कबीर का जो स्वरुप विकसित किया गया वह 'खजीनतुलअसफिया', अख्बारुलअख्यार तथा आईने-अकबरी में चर्चित कबीर से सर्वथा भिन्न है.
भक्तमाल के लेखक ने कबीर का परिचयात्मक विवरण देते हुए लिखा है कि उन्होंने "जातिव्यवस्था (वर्णाश्रम की मर्यादा) तथा छओं दर्शनों को मान्यता नहीं दी. उनका मानना था कि बिना भक्ति के धर्म भी अधर्म हो जायेगा और बिना भजन के योग, यज्य, दान, व्रत सब निरर्थक हैं. उन्होंने निष्पक्ष भाव से हिन्दुओं, तुर्कों सभी के हित के लिए रमैनी, सबद तथा साखी की रचना की. उन्होंने जो कुछ कहा निर्भीकता पूर्वक कहा, किसी को प्रसन्न करने के लिए नहीं." (भक्तमाल, छप्पय संख्या 516). स्पष्ट है कि भक्तमाल के लेखक नाभादास की दृष्टि में कबीर हिन्दुओं और मुसलामानों के समान रूप से हितैषी थे और भारतीय चिंतन को निष्पक्ष भाव से एक स्वस्थ आधार देना चाहते थे.
आईने-अकबरी में अबुल्फ़ज़्ल ने दो स्थलों पर उडीसा का इतिहास लिखते हुए जहाँ कबीर की चर्चा एक मुवह्हिद (एकत्ववादी) के रूप में की है, वहीं इस तथ्य का भी संकेत किया है कि कबीर ने जब सत्य को जान लिया तो वह सब कुछ जो सडा-गला था उसे पूरी तरह ठुकरा दिया (आईने-अकबरी, ब्लाकमैन,1,पृ0393 ).यह अभिमत कबीर के कथन "कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जानी" की पुष्टि करता है.
अखबारूल-अख़यार के लेखक शेख अब्दुल हक़ ने भी जो अपने समय के प्रख्यात धर्माचार्य थे, शेख रिज़कुल्लाह मुश्ताकी (1491-1581) के सन्दर्भ से कबीर को मुवह्हिद (एकत्ववादी) घोषित किया है. शेख मुश्ताकी ब्रजभाषा में राजन उपनाम से कविताएं लिखते थे और 'पैमाना' तथा 'ज्योति-निरंजन' नामक उनके दो काव्य-ग्रन्थ पर्याप्त लोकप्रिय थे. सन्दर्भ से संकेत मिलता है कि सोलहवीं शताब्दी के मुस्लिम समाज में कबीर के धर्म और उनकी विचारधारा को लेकर अनेक प्रकार की जिज्ञासाएं विद्यमान थीं. शेख रिज़कुल्लाह मुश्ताकी ने अपने पिता शेख सादुल्लाह (मृ0 1522 ई0) से, जो कबीर के समकालीन थे, प्रश्न किया कि "प्रतिष्ठित हिन्दी कवि कबीर, जिनके पद प्रत्येक व्यक्ति की ज़बान पर हैं,मुसलमान थे अथवा काफिर ? उत्तर में उनके पिता ने कहा कि वे मुवह्हिद (एकत्ववादी) थे. शेख मुश्ताकी ने पुनः प्रश्न किया कि एक मुवह्हिद (एकत्ववादी) क्या एक मुसलमान अथवा एक काफिर से भिन्न होता है ? शेख सादुल्लाह ने उत्तर दिया- यह समझना तुम्हारे लिए कठिन है. तुम धीरे-धीरे इसे स्वतः समझ जाओगे." शेख अब्दुल हक़ की यह भी अवधारणा थी कि कबीर की रचनाएं सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली और आगरा के सूफियों की गोष्ठियों में सम्मान पूर्वक उद्धृत की जाती थीं. ( अख्बारुल-अख़यार, दिली 1914, पृ0 300 )
शेख अब्दुल हक़ के उपर्युक्त विवरण से तीन महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते है.
1. कबीर एकत्त्ववादी (मुवह्हिद) थे.
2. एकत्ववादी काफिर नहीं होता. किंतु उसे समझने के लिए परिपक्व ज्ञान अपेक्षित है.
3. कबीर की रचनाएं दिल्ली और आगरे की सूफी गोष्ठियों में सम्मानपूर्वक उद्धृत की जाती थीं.
पंद्रहवीं शताब्दी में सूफियों की मुख्य रूप से दो विचारधाराएं विशेष चर्चा में थीं. एक, वह्दतुश्शहूद अथवा साक्ष्यवादी विचारधारा और दूसरी वहदतुल्वुजूद अथवा एकत्ववादी विचारधारा.पहली विचारधारा के सूफी जो शहूदी कहलाते थे शरीअत-सम्मत इस्लामी चिंतन के पक्षधर थे. दूसरी विचारधारा के सूफी जो वुजूदी कहलाते थे धार्मिक बाह्याचारों और कर्मकांडों के प्रति आस्थावान नहीं थे और शरीअत के पाबन्द मुसलामानों के समाज में काफिर समझे जाते थे.बू अली कलंदर, मसऊद बक, शेख अब्दुल कुद्दूस अलखदास, इत्यादि कबीर के समकालीन सूफी जिनकी हिन्दवी रचनाएं भी उपलब्ध हैं दूसरी अर्थात एकत्वावादी विचारधारा के थे. मुल्ला दाऊद और मलिक मुहम्मद जायसी आदि शहूदी अर्थात साक्ष्यवादी आस्था के रचनाकार थे.
मुवह्हिद अथवा एकत्ववादी होना भले ही इस्लामी धर्माचार्यों की दृष्टि में शरीअत-सम्मत न रहा हो, किंतु ऐसे सूफियों को आसानी से काफिर कहने का साहस भी इस्लामी धर्माचार्यों में नहीं था. शरीअत सम्मत अर्थों में तो प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा ग़ालिब भी मुसलमान नहीं थे और उन्होंने अपना मुवह्हिद (एकत्ववादी) होना स्पष्ट शब्दों में स्वीकार भी किया था -
हम मुवह्हिद हैं, हमारा कीश है तरके-रुसूम
मिल्लतें जब मिट गयीं, अजज़ाए-ईमाँ हो गयीं (दीवाने-ग़ालिब, दिल्ली 1997, पृ0 107)
यहाँ तरके-रुसूम से अभिप्राय धार्मिक बाह्याचारों और आडम्बरों के परित्याग से है और कीश का अर्थ प्रवृत्ति अथवा व्यवहार है. विभिन्न मिल्लतों या सम्प्रदायों में बँटे लोग यदि अपने अपने धार्मिक बाह्याचारों का परित्याग करदें, तो गालिब की दृष्टि में मिल्लतें स्वतः मिट जायेंगी और सभी सम्प्रदाय एक ही ईश्वरी आस्था (ईमान) का अंश प्रतीत होंगे. एकत्ववाद में विशवास रखने वाला मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं करता. कबीर इसीलिए इस विभाजन रेखा पर सर्वत्र प्रहार करते हैं. यह विभाजक रेखा बाह्याचारों की है, बाह्याडम्बरों की है जो ईश्वर द्बारा निर्मित न होकर धर्माचार्यों के स्वकेंद्रित चिंतन से जन्मे हैं. अकबरी दरबार के प्रख्यात फ़ारसी कवि उर्फी की स्पष्ट अवधारणा थी -
"उर्फी अच्छे और बुरे सभी लोगों के साथ मिल-जुल कर रहो कि जब इस संसार से विदा लो तो मुसलमान तुम्हें आबे-ज़मज़म से नहलाएं और हिन्दू तुम्हारी चिता सजाएं" (क़साएदे-उर्फी, मुंशी नवल किशोर प्रेस 1923. पृ0 97) प्रतीत होता है कि यह शेर लिखते समय उर्फी के समक्ष कबीर का सम्पूर्ण व्यक्तित्व जीवंत हो उठा था.
कबीर के आलोचकों ने या तो एक सिरे से कबीर के एकत्ववादी (मुवह्हिद) होने के प्रामाणिक सन्दर्भ को चिंतन के योग्य ही नहीं ठहराया या जान बूझकर आईने-अकबरी और अख्बारुल-अख़यार से आँखें मूँद कर रामानंदी कबीर की प्रतिमा गढ़ते रहे. इन आलोचकों के निकट सम्प्रदायगत आस्थाओं वाली जनश्रुतियों पर आधारित रचनाएं प्रामाणिक बन गयीं और प्रामाणिक ग्रंथों के उद्धरण आस्थानुकूल न होने के कारण अर्थहीन बन गए.
हरिऔध से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तक और आचार्य शुक्ल से लेकर डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ही नहीं पं.विष्णुकांत शास्त्री तक, सभी ने कबीर के भीतर उफनते समुद्री तूफ़ान को साहिल पर खड़े होकर देखना और मूल्यांकित करना चाहा. और इन महानुभावों कि ओट में खड़े इनके प्रति आस्थावान आलोचक जय-जयकार की मुद्रा में इनके निष्कर्षों को कालजयी घोषित करते रहे. काश इन महानुभावों ने पानी में उतरने का प्रयास किया होता और लहरें गिनने के बजाय लहरों के थपेडों की हलकी चोट भी महसूस की होती तो इन्हें क्रांतिकारी समाजचेता कबीर को मात्र रहस्यवादी, निर्गुण निराकार का उपासक, संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला आदि बनाकर ठंडे बसते में लपेटने के प्रयास का अवसर न मिलता.
आश्चर्य उस समय और भी होता है जब पं. विष्णुकांत शास्त्री विभिन्न सन्दर्भों का उपयोग करते हुए मुवह्हिद (एकत्ववादी) को सूफी नहीं मानते. अज्ञान को ज्ञान का आधार बनाकर निर्णय लेने का यह तरीका अदभुत है. काश पं. विष्णुकांत शास्त्री ने 'मुवह्हिद' के सम्बन्ध में कुछ पढ़ा होता. आवश्यक प्रतीत होता है कि यहाँ मुवह्हिद की थोडी सी जानकारी दे दी जाय. इस जानकारी के अभाव में कबीर के सम्बन्ध में किसी निध्कर्ष तक पहुँचाना तर्क-सांगत प्रतीत नहीं होता. बाबा फरीद (मृ0 1265 ई0) के सुपुत्र ख्वाजा याकूब ने मुवह्हिद की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि "मुवह्हिद (एकत्ववादी) वास्तव में वह है जिसका मुख्य उद्देश्य सदाचार है. वह जो भी करता है उसका लक्ष्य परमात्मा की कृपा प्राप्त करना होता है. पानी उसे डुबोने में असमर्थ है और आग उसे जलाने में असफल. वह सत्ता के एकत्व में पूरी तरह डूबा होने के कारण अपने 'स्व' का पूर्ण विनाश कर देता है. एक सूफी जो इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, प्रत्येक प्रकार की चिंता से मुक्त हो जाता है. यदि वह अपनी खोज करता है तो ईश्वर को पाता है और यदि ईश्वर को खोजता है तो स्वयं को पाता है. जब प्रेमी प्रियतम में पूरी तरह खो जाता है, तो प्रेमी और प्रियतम के गुण अभिन्न हो जाते हैं." (अब्दुल्लाह ख्वेशगी, मेराजुल-विलायत (हस्त-लिखित) पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर, पत्र संख्या 15 अलिफ़). एकत्ववादी सूफी का उपर्युक्त परिचय कबीर के सम्पूर्ण जीवन की एक प्रकार से झांकी प्रस्तुत कर देता है.
प्रसिद्ध सूफी चिन्तक जुनैद ( मृ0 910 ई0 ) के मतानुसार "मुवह्हिद (एकत्ववादी) सांसारिक अस्तित्व से ऊपर उठकर और सामान्य मानवीय अस्तित्व से मुक्त होकर परमसत्ता के साथ एकमेक हो जाता है. इसी अवस्था में वह सच्ची तौहीद (एकत्व) को प्राप्त करता है. जबतक वह अपनी वैयक्तिकता को समाप्त नहीं करता वह मुवह्हिद के परमपद को प्राप्त करने में असमर्थ होता है. (ए. एच. अब्दुल्कादर, द लाइफ पर्स्नालिटी एंड राइटिंग आफ अल-जुनैद, लन्दन 1962, पृ0 79 ).कबीर ने "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं" में इसी तथ्य को व्यक्त किया है.
कबीर का 'अवधूत' अथवा 'अवधू' या 'जोगी' वस्तुतः इसी मुवह्हिद के समानार्थक है जिसे सूफियों की सामान्य शब्दावली में 'आरिफ़' कहा गया है. जुनैद ने आरिफ़ और मुवह्हिद में कोई भेद नहीं माना है. उनके मतानुसार "आरिफ़' उस समय तक आरिफ़ नहीं होता जबतक वह धरती के स्वभाव का न हो जाय जिसपर पवित्र अपवित्र सभी चलते हैं. वह बादल की भांति प्रत्येक वस्तु पर छा जाता है और वर्षा की भांति पसंद-नापसंद का ध्यान किए बिना प्रत्येक स्थल को समान रूप से तर कर देता है."(वही,पृ0 102 ) कबीर ने इसी दृष्टि से अवधू जोगी को जग से न्यारा बताया है -" अवधू जोगी जग थैं न्यारा" मुवह्हिद, आरिफ़ अथवा अवधूत उस सहजानुभूति को प्राप्त कर लेता है जहाँ सरहपाद के शब्दों में "णउ पर णउ अप्पा" अर्थात अपने और पराये का भेद मिट जाता है. कबीर का यह अवधू अविनाशी से चित्त चिहुटा देने की बात करता है, अपने घर में कामधेनु को बाँध कर सांसारिक उपकरणों के सभी कच्चे बर्तन फोड़ देता है, नींद को कभी पास फटकने नहीं देता और सदैव जागता रहता है. उसे न काल खा सकता है, न कल्प प्रभावित कर सकता है न ही जरावस्था उसे क्षीण कर सकती है. वह परम पद में लीन रहता है, घर में रहकर ब्रह्म में माता रहता है,मृत्यु से न दूर रहता है न निकट न ही मर सकता है. यह सभी गुण कबीर के एकत्व वादी होने की पुष्टि करते हैं.
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प्रो. शैलेश जैदी की पुस्तक हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि से साभार

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

मुख्यधारा के साहित्यिक ठेकेदारों की अलगाववादी राजनीति / प्रो.शैलेश ज़ैदी


साहित्य में मुख्य धारा का प्रश्न पहले भी उठाया गया और आज भी उठाया जा रहा है. उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से जन्मी मुख्य धारा की अमूर्त्त कन्या, संघ परिवार की गोद में पलकर, अब पर्याप्त सयानी, मूर्त्त और मुखर हो गई है. निज-धर्म-वर्चस्व और ब्राह्मणवादी विचारधारा की तत्कालीन राष्ट्रीय समझ के पर्याय स्वरुप यह मुख्य धारा सिद्धों, नाथों और जैनियों द्बारा रचित साहित्य को अपने अनुकूल न पाकर, यह जानते हुए भी कि साहित्य की प्रकृति सिद्ध, नाथ, जैन नहीं होती, उसे इन्हीं नामों से याद करती रही.यह साहित्य के इस विपुल भण्डार को हाशिये पर डालने की एक सोची-समझी साज़िश थी. साहित्येतिहास के मोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे गए जिनमें इन साहित्यकारों को अछूत की तरह ज़मीन के एक कोने में बैठने की बित्ता भर जगह तो दे दी गई, साहित्य की खाट पर बराबर से बैठने कि इजाज़त कभी नही मिली.
रोचक बात यह है कि साहित्य की मुख्य धारा वाले मठाधीशों ने, अछूतों की तरह बरतते हुए जैनियों, सिद्धों और नाथ साहित्यकारों को अपने स्वनिर्मित विशाल भव्य भवन में मामूली सी जगह देकर अपनी उदारता पंजीकृत करा ली और गर्व से गर्दन टेढी करके अपने वर्चस्व को भुनाते रहे. कबीर के रामनामी दुपट्टे में वैष्णववादी झालरें और गोटे लगाने की गुंजाइश पाकर, बच्चों को पढाई जाने वाली पुस्तकों में कंठी, माला, तिलक और मोर पंख से उनका चित्र सजाकर इस ढंग से परोसा गया कि मुख्य धारा के भीतर ही भीतर उन्हें व्याख्यायित किया जा सके. रसखान के सम्बन्ध में तो यह भी घोषणा कर दी गई कि वे जीवन के अन्तिम दिनों में इस्लाम छोड़कर वैष्णव धर्मावलम्बी हो गए थे.
अच्छा ही हुआ कि मीर तकी मीर और मोमिन खाँ मोमिन उर्दू में शायरी करते थे. यदि वे हिन्दी के रचनाकार होते तो मुख्य धारा के पंडितों को उनकी कविता से ऐसे अन्तःसाक्ष्य निकाल लेने में कोई कठिनाई न होती जिनके आधार पर वे सहज भाव से लिख सकते थे कि इन कवियों ने हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर इस्लाम का परित्याग कर दिया था. कहा जाता कि मीर ने तो स्पष्ट लिखा है _ 'मीर के दीनो-मज़हब को, पूछते क्या हो इनने तो / कश्का खींचा, दैर में बैठे, कबका तर्क इस्लाम किया." अर्थात मीर तिलक लगाते थे, मन्दिर में बैठते थे और बहुत पहले ही इस्लाम का परित्याग कर चुके थे. इस व्याख्या के साथ मीर को तुरत मुख्य धारा में शामिल कर लिया जाता और रसखान की भांति उनपर भी वैष्णवत्व की मुहर लगा दी जाती.
अब मोमिन खाँ मोमिन को लीजिये. लिखते हैं - "अल्लह रे गुमराही बुतों-बुतखाना छोड़ कर / मोमिन चला है काबे को इक पारसा के साथ." अर्थात देखिये मोमिन कितना पथ-भ्रष्ट हो गया है कि देवालय और उसकी दिव्य मूर्तियों को छोड़कर एक 'पवित्रात्मा' के साथ काबे के लिए प्रस्थान कर रहा है. या फिर दूसरा शेर - 'उम्र तो सारी कटी इश्के-बुताँ में मोमिन / आखरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे.' कहा जाता कि मोमिन ने बुतों के इश्क में कुफ्र स्वीकार कर लिया था और जीवन का बड़ा हिस्सा इसी स्थिति में गुजार दिया.अब अन्तिम समय में मुसलमान होकर करेंगे भी क्या. वास्तव में इस प्रकार की व्याख्याएं वही लोग कर सकते हैं जिनकी दृष्टि स्थूल की परिधियाँ लांघकर सूक्ष्म तक पहुंचना नहीं जानती. जिस साहित्य या साहित्यकार के प्रति हमारी रागात्मकता नहीं होती, उसके साथ हम ऐसा ही खिलवाड़ करते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल रीतिकाल के कवियों से खुश नहीं थे. मुबारक की एक पंक्ति " काजर दे नहीं एरी सुहागन, आँगुरी तेरी कटेगी कटाछन' का मजाक उडाते हुए शुक्ल जी ने यहाँ तक कह दिया कि जब उसकी आँखें कटाक्ष हैं और काजल लगाते समय उंगली के कट जाने की संभावना है फिर उसे साग-सब्जी काटने के लिए हंसिये चाकू की क्या ज़रूरत.
खैर ! यह तो एक हल्की-फुल्की बात थी. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अब्दुर्रहमानकृत 'संदेश रासक' का संपादन किया. कवि ने अपना परिचय कराते हुए लिखा था "पच्चाएसि पहुओ पुव्व पसिद्धोय मिच्छ्देसोत्थि" द्विवेदी जी ने व्याख्या की 'पश्चिम दिशा में पूर्व काल से प्रसिद्द एक म्लेच्छ देश है." यह भी नहीं सोचा की कोई रचनाकार स्वयं अपने वतन को 'म्लेच्छ देश; क्यों कहेगा ?द्विवेदी जी के शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने रही सही कमी पूरी कर दी.तुक्के भिडाकर म्लेच्छ देश का 'ठौर-ठिकाना' तलाश कर लिया."अब्दुर्रहमान का आशय पश्चिमी पाकिस्तान या उसी के पास किसी प्रदेश से रहा होगा. कालांतर में म्लेच्छ की संज्ञा पाने वाली अनेक आर्येतर जातियों का आगमन उसी ओर से हुआ." 'मिच्छ-देसो-त्थि' शब्द को द्विवेदी जी 'मिच्छद-एसो-अत्थि' अर्थात मशहद देश है इसलिए नहीं पढ़ सके, क्योंकि उनके अवचेतन में म्लेच्छ शब्द पहले से घुसा हुआ था. यही खिलवाड़ अब्दुर्रहमान के पिता मीर हुसैन के नाम के साथ की गई. अब्दुर्रहमान ने लिखा था-"तह विसए सम्भूओ आरद्द मीरसेणस्स" अन्तिम शब्द को मीर हुसैन पढने के बजाय मीरसेन पढ़ा गया और इसमें धर्म परिवर्तन की गंध खोज ली गई. अब मार्क्सवादी कहे जाने वाले आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने ब्रह्मण ज्ञान की गंगा बहा दी "मीर मुस्लिम जातिवाचक शब्द है तो सेन हिन्दू धर्म बोधक. मीरसेन की ही भाँति मुसलमान 'कहे जाने वाले' प्रसिद्ध गायक तानसेन के नामांत में भी सेन है." पता यह चला कि मुख्य धारा के पंडितों को अपनी इच्छानुकूल तुक्के भिडाने में दक्षता प्राप्त है. म्लेच्छ रचनाकारों का साहित्यिक शुद्धिकरण करने का यह अच्छा तरीका है. इसके बाद वे पठनीय हो जाते हैं. 'पउमचरिउ' जैसी उच्च-स्तरीय साहित्यिक रचना इसलिए उच्च स्थान नहीं प्राप्त कर सकी, क्योंकि उसका शुद्धिकरण नहीं किया जा सका और उसे मुख्य धारा की आस्था के प्रतिकूल पाया गया. फिरभी दावा यह है कि मुख्य धारा में अपूर्व सहनशीलता है.
स्वधर्म-वर्चस्व की भावना से नियंत्रित, मुख्य धारा की ब्राह्मणवादी राष्ट्रीय समझ भाषा, राजनीति, साहित्य सभी स्तरों पर जिस अलगाववाद को बढ़ावा दे रही थी, उसके मठाधीश राष्ट्रवादी होने के भले ही दावेदार रहे हों, उन्होंने अपने धर्म-निरपेक्ष और प्रगतिशील होने का डंका कभी नहीं बजाया. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं थी. स्वधर्म-वर्चस्व से नियंत्रित मुख्य धारा का नशा उनपर इतना गहरा था कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसा गंभीर आलोचक भी जायसी का विवेचन करते हुए त्रिवेणी में लिखता है 'कुतुबन ने मुसलमान होते हुए भी अपनी मनुष्यता का परिचय दिया.' गोया मनुष्यता का मुसलामानों से कोई रिश्ता ही नहीं है.
पराधीन भारत के हिन्दी साहित्यकारों में अकेले एक प्रेमचंद थे जो चीख-चीख कर पूरी बेचैनी के साथ मुख्य धारा की इस मानसिकता पर प्रहार कर रहे थे. पर उनके ज़माने में उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ से अधिक नहीं थी. आश्चर्य आज के उन लेखकों पर होता है जो एक तरफ़ अपने प्रगतिशील और धर्म-निरपेक्ष होने के दावेदार हैं तो दूसरी तरफ़ उसी अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो पहले किसी और भेस में हमारे भीतर धंसकर बैठी हुई थी. रामविलास शर्मा ने 'हिन्दी जाति' का झंडा उठाकर मुख्यधारा की इसी अलगाववादी मनोवृत्ति का साथ दिया. अन्य सुधी आलोचकों ने जैन साहित्य, सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य की तर्ज़ पर 'दलित-लेखन,' 'महिला-लेखन,' 'अल्पसंख्यक-लेखन' और 'मुस्लिम-लेखन' जैसे अलगाववादी शब्दों को जिस तेज़ी से उछाला और उछाल रहे हैं वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. मतलब साफ़ है कि यह लेखन साहित्य के केन्द्र में बैठे एक विशिष्ट समाज की स्वकल्पित मुख्य धारा से मेल नहीं खाता, इसलिए इसकी अलग पहचान ज़रूरी है, ताकि उपयुक्त समय पर एक सोची-समझी साजिश के तहत इसे साहित्य के हाशिये पर रखते हुए हिन्दी साहित्य के भव्य भवन में उसी तरह दया पूर्वक बित्ता भर ज़मीन दे दी जाय, जिस तरह सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य को दी गई.
खतरा इस बात का है कि जिस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में अलग-अलग जातियों के अलग-अलग समाज बन गए और इन समाजों ने 'कायस्थ-समाचार,' जाट-समाचार, 'कुस्रेष्ठ-समाचार,' 'अग्रवाल-उपकारक,' भूमिहार-ब्राह्मण' आदि नामों से अपनी पृथक पत्रिकाएं छापनी शुरू कर दीं, उसी प्रकार आज कायस्थ-लेखन, अग्रवाल-लेखन आदि नामों से कहीं नई-नई खैमेबाजियाँ ण शुरू हो जाएँ ! पंकज बिष्ट का विचार है कि " आज के लेखन का आश्चर्यजनक रूप से मुख्य-स्वर महिलायें और अल्पसंख्यकों का वह वर्ग है जो पिछले पचास वर्षों में एक तरह उस दबा और मुख्य धारा से लगभग खदेडा गया है." इस मुख्य स्वर में पंकज बिष्ट दलित लेखन के स्वर को भी शामिल करने पर आमादा हैं. पर अभी उस लेखन में उन्हें मात्र सुगबुगाहट दिखायी देती है. उनका ख्याल है कि "यही सब कारक ( अर्थात पिछले पचास वर्षों में दबाया जाना और मुख्य धारा से खदेडा जाना ) दलितों पर भी लागू होते हैं, पर वहाँ अपनी पीड़ा और शोषण को रूप न दे पाने की कमी उस देरी के लिए जिम्मेदार है जो रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में अभी आनी बाक़ी है. " हंस के जनवरी 1999 में छपा पंकज बिष्ट का यह सम्पादकीय, उस मुख्या धारा को स्पष्ट करने से कतार गया है जो पिछले पचास वर्षों से दलितों, अल्प-संख्यकों और महिलाओं को खदेड़ता रहा है. भारत की आबादी से यदि इन तीनों वर्गों को अलग कर दिया जाय, तो मुश्किल से तीन-चार प्रतिशत लोग बच पायेंगे. आश्चर्य यह है कि यही तीन-चार प्रतिशत बचे-खुचे लोग, पहले भी मुख्य धारा का प्रतिनिधित्व करते थे और आज भी कर रहे हैं.
विचारणीय यह है कि यह मुख्य धारा जो पिछले पचास वर्षों से दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को खदेड़ती रही है, इसे संघ परिवार वाली मुख्य धारा से किन अर्थों में अलग किया जा सकता है ? वे कौन लोग हैं जिन्होंने मुख्य धारा की ठेकेदारी और महाजनी संभाल रखी है ? वे कौन लोग हैं जो अपने से इतर सभी वर्गों, समुदायों और विचारधाराओं को एक दर्जा नीचे का मानकर विजेताओं के अंदाज़ में समय-समय पर उनका एक अलग खांचा घोषित करके, सहानुभूति जताने का नाटक करते हैं ? नासिरा शर्मा का यह रेखांकन कि "लेखन को खांचों में बांटने का काम अक्सर सम्पादकों या प्रकाशकों द्वारा अंजाम पता है," बड़ी हद तक सार्थक प्रतीत होता है. इसके पीछे दरअस्ल साहित्य का मूल्यांकन अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है किसी एक समय में किसी एक मुद्दे को बहस के केन्द्र में रखकर पत्रिका या पुस्तक को होट्केक की तरह बेचना. महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के लेखन के फलक को उनके वर्ग की सीमित समस्याओं तक सिमटा देखने वाले हिन्दी आलोचक जहाँ अपने स्वकल्पित साहित्यिक वर्चस्व का सांकेतिक उद्घोष करते हैं, वहीं भारत जैसे विशाल देश में हिन्दी जाति के 'गंगा मेरी माँ का नाम, बाप का नाम हिमालय' वाले संकीर्ण दरबे में स्वयं को बंद रखते हैं और समझते हैं कि जब तक हम बांग नहीं देंगे समूचे देश में सवेरा नहीं होगा.
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मंगलवार, 1 जुलाई 2008

बहादुरशाह ज़फ़र [1775-1862 ] की यादगार ग़ज़लें

[ 1 ]
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्रो-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
चश्मे-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
उनकी आंखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीअत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
खू तेरी हूरे-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
[ 2 ]
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सका, मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ
पए-फातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढाये क्यों
कोई आके शम'अ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ले-बहार हूँ
[ 3 ]
लगता नहीं है जी मेरा उजडे दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापाएदार में
बुलबुल को बागबाँ से न सैयाद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
इक शाखे-गुल पे बैठके बुलबुल है शादमाँ
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालाज़ार में
उम्र-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इन्तेज़ार में
दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएंगे कुंजे-मज़ार में
कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूए-यार में.
[ 4 ]
खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बगैर
पर दिल की जान लेते हैं दिलबर कहे बगैर
क्योंकर कहूँ तुम आओ, कि दिल की कशिश से वो
आयेंगे दौडे आप मेरे घर कहे बगैर
क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर
बेदर्द तू सुने-न-सुने लेक दर्दे-दिल
रहता नहीं है आशिके-मुज़्तर कहे बगैर
तक़दीर के सिवा नहीं मिलता कहीं से भी
दिलवाता ऐ 'ज़फ़र' है मुक़द्दर कहे बगैर
[ 5 ]
दिल की मेरे बेक़रारी मुझ से कुछ पूछो नहीं
शब् की मेरी आहो-ज़ारी मुझ से कुछ पूछो नहीं
बारे-गम से मुझपे रोज़े-हिज्र में इक-इक घड़ी
क्या कहूँ है कैसी भारी मुझसे कुछ पूछो नहीं
मेरी सूरत ही से सब मालूम कर लो हम्दमो
तुम हकीकत मेरी सारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
शाम से ता-सुब्ह जो बिस्तर पे तुम बिन रात को
मैंने की अख्तर-शुमारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
ऐ 'ज़फ़र' जो हाल है मेरा करूँगा गर बयाँ
होगो उनकी शर्मसारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
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सोमवार, 30 जून 2008

दिनकर ने कहा था

असली सत्य [ 1969, दिल्ली ]
असली सत्य शून्यता है, किंतु इस सत्य को पकड़ने की कोई राह नहीं है. जिस चीज़ को तुम राह कहते हो, वह शून्यता से भिन्न कुछ-न-कुछ बनने की चेष्टा मात्र है. वह विलीयमान क्षण से आगे बढ़कर ठहरने का निष्फल प्रयास है. ईश्वर में आस्था, आत्मा की अमरता, मोक्ष और निर्वाण - ये सब चालाकी के नाम हैं. नास्तिकता और वैज्ञानिक भौतिकवाद भी चालाकी ही है. हाँ उनके साथ बाँझ निश्चितता और आक्रामक दुराग्रह लगे हुए हैं.
एअर-कंडीशंड पोएट [1969, कानपुर ]
श्रीमती संतोष महेन्द्रजीत सिंह को लगा मैं आराम से नहीं हूँ. आज वे कह बैठीं -"आप एअर-कंडीशंड पोएट हो गए" मैं ने कहा " हाँ, वहाँ दिल्ली में एअर-कन्डीशन में रहता हूँ, ट्रेन में ए.सी. में चलता हूँ और कविता भी ठंडी लिखने लगा हूँ. आपके मजाक में भी सच्चाई है.
कविता [ 1970, दिल्ली ]
कविता जीवन का पुष्प है. वह पुष्प जो शिखर पर खिलता है, फुनगी पर खिलता है. जिसे यह फूल चुनना हो, वह शिखर से ध्यान हटाकर दाहिने या बाएँ नहीं मुड़ेगा. जिन्हें आत्मज्ञान हो चुका है, उन्हें ही कविता लिखनी चाहिए. मगर तब संसार में कविता की मात्रा कितनी न्यून हो जायेगी. न्यून हो जाय वह भी अच्छा है. इन्फ्लेशन होने से कविता का मूल्य बिल्कुल घट गया है.
कविता का लक्षण [ 1971, पटना ]
कविता का एक बड़ा लक्षण यह है कि वह आत्मा की शान्ति को भंग करे. आत्मा के शान्ति-भंग में एक आनंद है, जिसे सुसंस्कृत व्यक्ति ही जानता है, जिसके ह्रदय में विचारों के हल, चल चुके हों. अगर थोड़े से लोग पीढी-दर-पीढी किसी लेखक या कवि की प्रशंसा करते रहें, तब बाकी लोग भी उसे स्वीकार कर लेंगे. साहित्य भी जनता पर ज़बरदस्ती थोपा जाता है.
गुलशन नंदा बनाम हिन्दी/उर्दू लेखन [ 1970,दिल्ली ]
गुल्शन नंदा बोले -'मैं उर्दू में लिखकर हिन्दी में उतरवाता हूँ.' मैंने पूछा आप अपने को हिन्दी का लेखक मानते हैं या उर्दू का, हालांकि दोनों भाषाएँ एक ही हैं ? नंदा जी ने कहा 'उर्दू में मैं अधिक से अधिक 15000 बिका हूँ, हिन्दी में मेरी पुस्तकें तीन-तीन लाख छपती हैं. अतएव मैं अपने को हिन्दी का ही लेखक मानता हूँ'
मनीषी-धर्म [1970, दिल्ली ]
सुविधा के साथ संधि, सुरक्षा के साथ सुलह, यह मीडियोक्रिटी है. मनीषी-धर्म नहीं. क्षण-क्षण सफलता की खोज और कीर्ति की कामना, यह भी मनीषी-धर्म के विरुद्ध है. समाज को चुनौती वे ही दे सकते हैं, जो गरीबी और असुरक्षा के लिए तैयार हों. मैं शायद मनीषी-धर्म से गिर रहा हूँ. गरीबी अब भी कबूल है, पर असुरक्षा से भय लगने लगा है.
मनीषी [ 1972, पटना ]
स्वराज्य के पूर्व तक मनीषियों का इस देश में बड़ा सम्मान था, क्योंकि मनीषी शासकों के खिलाफ आवाज़ उठाते थे. मगर अब मनीषियों का आदर बहुत कम हो गया है. जो मनीषी लेखक और कवि हैं, वे कला की सेवा तो करते हैं, लेकिन समय के जलते प्रश्नों पर अपना विचार व्यक्त नहीं करते. यह सुरक्षा की राह है और जो सुरक्षा खोजता है, जनता उसकी खोज नहीं करती. हम लोग सुरक्षा की खोज में ही मारे गए हैं.
युद्ध [1971, पटना ]
जब युद्ध आरम्भ हो जाय तब तीन विकल्प रह जाते हैं. युद्ध के साथ हो जाओ, युद्ध का विरोध करो, या युद्ध से उदासीन हो जाओ जैसे येट्स प्रथम विश्वयुद्ध से उदासीन हो गए थे. वैयक्तिक सिद्धांत के कारण कोई युद्ध का विरोध करे, तो मैं उसका आदर करूँगा, साथ नहीं दूँगा. उदासीन होना तो मेरे लिए असंभव है. किंतु युद्ध के बारे में मेरे विशवास तब परीक्षित होते, जब मैं खतरे के रेंज में रहकर युद्ध का समर्थन करता.
छायावाद का सुधरा रूप [1971, पटना ]
बच्चन, नरेंद्र, शिवमंगल,नागार्जुन, अंचल और मैं, ये सब-के-सब छायावाद से जन्मे हैं और हम लोगों के भीतर से वह धारा अब भी प्रवाहित हो रही है. किंतु यह छायावाद का सुधरा हुआ रूप है, जो धूमिल नहीं है, जन जीवन से दूर नहीं है, अनुभूति के बदले कल्पना पर आश्रित नहीं है.
राष्ट्र कवि [ 1971, दिल्ली ]
जो भी कवि राष्ट्रीय कवितायें लिखता हो, उसे राष्ट्र कवि कह देते हैं. किंतु यह काफ़ी नहीं है. प्रत्येक जाति की आध्यात्मिक विशेषता होती है, कोई सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होता है, संसार और जीवन को देखने की कोई दृष्टि होती है. जो कवि इस दृष्टि-बोध को अभिव्यक्ति दे सके वही राष्ट्र का राष्ट्र-कवि कहलाने योग्य है... हमारे असली राष्ट्र कवि वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं, तुलसी हैं और रवीन्द्र नाथ ठाकुर हैं,
दिनकर की डायरी से साभार

एक दीवार जो गिर गई / शैलेश ज़ैदी




प्रकाशकीय टिप्पणी
यह कविता प्रो. शैलेश ज़ैदी ने अपनी पत्नी डॉ. शबनम ज़ैदी के निधन के बाद लिखी थी. यह मुझे 'शैलेश ज़ैदी का रचना संसार' शीर्षक शोध-प्रबंध लिखते समय उनके पुराने कागजों में मिली थी जहाँ से निकालकर मैंने इसे 'तलाश' हिन्दी त्रैमासिक के अंक 4 में 1999 में प्रकाशित किया था. वे इसे नितांत निजी मानते हुए इसके प्रकाशन के पक्ष में नहीं थे. किंतु मुझे इस कविता का फलक इतना विस्तृत प्रतीत हुआ कि इसमें हर व्यक्ति का दर्द मुखरित दिखायी दिया. इसकी परतों में एक पूरा इतिहास करवटें ले रहा है. तलाश के पाठकों की पसंद मुझे प्रेरित करती है कि मैं इसे पोस्ट करूँ. [ प. फ़ा.]
वो इक गुलाब जिसे रौंद डाला धरती ने
मैं उस गुलाब की रंगत संजोये बैठा हूँ.
सुगंध जिसकी खिलाती थी फूल स्वप्नों के
मैं आज स्वप्नों की चाहत संजोये बैठा हूँ.
पता नहीं मुझे, सोचा है क्या मेरे जी ने !
किसी भी तथ्य की अवहेलना करूँ कैसे
मैं जनता हूँ कि शाश्वत नहीं वसंत का रूप,
क्षणों के मोह में लिपटी हुई विसंगतियां
न देख पायीं कभी एक पल अनंत का रूप.
विचार उठते हैं मन में तो चुप रहूँ कैसे !
कभी भी काम न आई किसी के भावुकता
कहाँ से लाये कोई आज नीलकंठ का शील !
अप्राण देह में बजते हैं शब्द ऊट-पटांग,
रुदन के गीत सुनाती है आंसुओं की झील
छुपाये बैठा है मन में मनुष्य कामुकता.
करूँ जो बात कभी न्याय और समता की
तो एक टक मुझे सब देखते हैं हैरत से,
प्रलोभनों से घिरे लोग, रुख बदलते हैं,
समय ने उनको सिखाया है जुड़ना ताक़त से.
सुनाऊं किसको कथा प्यार और ममता की !
मेरे मकान की दीवारें, फ़र्श, छत, आँगन
सभी हैं मौन, सभी हैं उदास मेरी तरह,
सभी में दौड़ता है रक्त मेरे चिंतन का ,
सिमट गये हैं सभी मरे पास मेरी तरह.
सभी के साथ मैं करता हूँ चित्त का मंथन !
विहंग उड़ते हैं यादों के मेरे गाँव की ओर,
मैं देखता हूँ जो अपने शरीर को छू कर,
तो लगता है मुझे, मैं बन गया हूँ जेठ की धूप,
तपन से सूख के फट-फट गये हैं सब पोखर.
उदास शामें हैं, दिन है उदास, उदास है भोर !
नहर को काट के लाते हैं लोग खेतों में
ज़मीन प्यासी है, पानी मिले तो बोल उठे.
पड़ोसी मेंड़ें जो काटी गयीं, तो आग लगी.
कफ़न लपेटे हुए, लाठियों के गोल उठे.
लहू से फ़स्ल उगाते हैं लोग खेतों में !
असामियों को बंधे देखता हूँ रस्सी से
लगी है चोट जो कोड़ों की, पीठ सूजी है,
किसी के घर में कहीं फूटी कौडियाँ भी नहीं
ज़मीन जोतने की यह सज़ा अनोखी है !
घृणा अनाज के बदले मिली है खेती से !
न भूल पाऊंगा मैं गाँव की वो तस्वीरें
लकीरें जिनकी बनाती गयीं मुझे बागी.
पिता के स्नेह से आक्रोश मन का कम न हुआ,
ज़मीनदार के बेटे की चेतना जागी.
सहज ही तोड़ दीं मैंने, तमाम ज़ंजीरें!
मगर वो गाँव कहीं अब भी मन में बसता है
पुकारते हैं मुझे बौर मीठे आमों के
मैं छुप के बैठा हूँ बंस्वारियों के झुरमुट में
झिंझोड़ देते हैं शीतल हवाओं के झोंके
अभी भी गाँव में रहने को जी तरसता है
अलाव तापते लोगों की रस भरी बातें
किसी के घर की कहानी, किसी के प्यार की बात
कहीं नटों के तमाशे, कहीं पे नौटंकी
शहीद बाबा के बरगद पे एतबार की बात
बनावटों से बहोत दूर सब खरी बातें
मुझे है लगता, उसी गाँव की ज़मीन हूँ मैं
जभी तो लोग मेरा मोल-भाव कर न सके
मैं बार बार समय के थपेडे खाता रहा
विचार दृढ़ थे कुछ ऐसे कि जो बिखर न सके
हवाएं जैसी भी हों, अपने ही अधीन हूँ मैं
वो इक गुलाब जिसे रौंद डाला धरती ने
उसे भी गाँव से मेरे था प्यार,मेरी तरह
सदा वो गाँव रहा उसकी कल्पनाओं में
उठे थे उसके भी मन में विचार, मेरी तरह
पड़े थे उसको भी विष के कई चषक पीने
मैं उस गुलाब के सम्पर्क में जब आया था
तो जिंदगी मेरी बेढब सपाट पत्थर थी
तराशा उसने, जो पंखुरियों से मुझे अपनी
प्रत्येक साँस मेरी प्यार का समंदर थी
भविष्य सोच के मैं अपना, गुनगुनाया था
मैं जनता न था शायद, है क्या भविष्य का अर्थ
मगन था देख के निश्छल बहाव जीवन का
उमड़ रही थीं मेरे मन में कितनी तस्वीरें
सुनहरा लगता था सारा रचाव जीवन का
मैं कल्पना भी न कर पाया, होगा ऐसा अनर्थ
मनुष्य कितने विकल्पों में साँस लेता है
मगर मनुष्य की हर आस्था अधूरी है
यथार्थ जैसा भी हो, सालता है भीतर तक
ऋचाएं जैसी भी हों, वन्दना अधूरी है
तमाम उम्र कोई किसका साथ देता है !
मैं पत्थरों के नगर में बड़ा हुआ पल कर
हथेली पर मुझे अपनी, उठाया गंगा ने
चुनारगढ़ से मी मुझको चित्त की दृढ़ता
संवारा मेरे विचारों को माँ की ममता ने
उमंगें फूट पड़ीं श्वेत झरनों में ढलकर
मगर अतीत का हर दृश्य आज धुंधला है
नदी के बहने की आवाज़ तक नहीं आती
खिसक गई हैं क़िले की तमाम दीवारें
ममत्व की कहीं कोई महक नहीं आती
समझ में कुछ नहीं आता, मुझे हुआ क्या है !
पुकारती नहीं अब मुझको 'विन्ध्य' की देवी
सपाट हो गए सारे शिखर चटानों के
अंधेरों में कहीं 'कंतित शरीफ' दफ़्न हुआ
हवास उड़ गए जीवन के संविधानों के
दिखायी देती है हर चीज़ उल्टी पुल्टी सी
मैं देखता हूँ सड़क पर पड़ा हूँ मैं चुप-चाप
दबाये मुट्ठी में सूरज की आग के सपने
दहकते लोहे की चादर का सिर पे टोप धरे
चमकती आंखों में हैं शेषनाग के सपने
सिमट रही है ज़मीं मेरे गिर्द आप-से-आप
धमाका कोई हुआ दहशतों के जंगल में
लहू-लुहान हवाओं में है अजीब तनाव
घिसट रही है कहीं रोशनी की एक किरण
सुलग रहा है कहीं बेबसी का सर्द अलाव
घुला-घुला सा है विष बद हवास हलचल में
जुलूस, आगज़नी, नारे, सिसकियाँ, आंसू
स्वतंत्रता के यही अर्थ हैं ज़बानों पर
चबा चुके हैं सभी अपने हाथ बाज़ू तक
लगे हैं मेले घृणाओं के कारखानों पर
संजो रहा हूँ मैं, इतिहास से ये तारीखें
ज़मीन बँट गई, तक़सीम हो गया सब कुछ
भरी हैं रेल के डिब्बों में अनगिनत लाशें
समय ने घोल के गंगा के जल में रक्त की गंध
नदी की तह में बिछा दीं परत परत लाशें
अंधेरे दृश्यों के आँचल में खो गया सब कुछ
बुझा-बुझा सा है रावी के रूप का जादू
घुटी-घुटी सी है जमुना की साँस भीतर तक
बिलख रहा है किसी हीर के लिए रांझा
चुभी हुई है विभाजन की फाँस भीतर तक
सुबक रही है सरे-आम प्यार की खुशबू
लहू के चूल्हे पे इतिहास की पतीली है
घृणा की आंच में दुष्कांड फद्फदाते हैं
घरों के ठंडे तवे लिख रहे हैं दुःख की कथा
चमक-चमक के छुरे बिजलियाँ गिराते हैं
स्वतंत्रता ने बहुत सी शराब पी ली है
मुखौटा ओढ़ के धर्मों का पाशविकता ने
ज़मीन काट दी नफ़रत के तेज़ चाकू से
बहाव थम गया दरया के बहते पानी का
मनुष्य चीख उठा यातना की बदबू से
अमन की माला के सारे बिखर गए दाने
मैं सोचता रहा सूरज का स्वप्न धोखा था
कटी जो रात, तो काली सुबह दिखायी दी
अंधेरे फैल गए दैत्य बनके चार तरफ़
हरेक शक्ल मुसीबत-ज़दह दिखायी दी
सभी दिशाओं में बस सनसनी का पहरा था
मेरे भी घर को समय की लहर ने तोड़ दिया
पसंद आ गई चाचा को सिंध की धरती
बहेन जो सबसे बड़ी थीं, चली गयीं लाहौर
पिता ने किंतु न छोड़ी स्वदेश की मिट्टी
ये और बात है, दंगों ने मन मरोड़ दिया
अलग किया गया अश्फ़ाक़ को भगत सिंह से
न सिर्फ़ राष्ट्र बँटा, राष्ट्रीयता भी बंटी
मनुष्य मुर्दा था, जिंदा थी साम्प्रदायिकता
दिओं की राह बंटी, राह की हवा भी बंटी
विचारशील दिमागों पे लग गये ताले
फिर एक दिन तो क़यामत ही जैसे टूट पड़ी
तड़प रहा था पड़ा रामराज्य धरती पर
लहू में तर था अहिंसा की मांग का सिन्दूर
दिखा रहा था तमाशे अजीब बाज़ीगर
बिखर गई थी मनुष्यत्व की हर एक कड़ी
बढे थे जिसके क़दम प्रार्थना-सभा के लिए
गिरा ज़मीन पे, सीने पे गोलियाँ खा कर
स्वतंत्र देश ने लिख दी लाहू कि रामायण
अटक के रह गया 'हे राम' शब्द अधरों पर
कलंक 'गोडसे' था इस वसुंधरा के लिए
हवाएं मौन थीं, सुनसान धड़कनों की तरह
जमा था रक्त शरीरों में, आँख ख़ाली थी
जगह-जगह पे था सडकों पे दहशतों का हुजूम
समय ने विष से भरी पोटली उछाली थी
ख़ुद अपना साया भी लगता था रहज़नों की तरह
सभी घरों के उजालों में घुप अँधेरा था
सुलगती धुप सियाही लपेटे बैठी थी
विलापिका के करुण गीत लिख के सूरज ने
समाधि राष्ट्र-पिता की भिगो-भिगो दी थी
जिधर भी देखिये नैराश्य का बसेरा था
छटी जो धुंध तो भारत का संविधान बना
अधूरा रह गया फिर भी सवा भाषा का
सहानुभूति दलित वर्ग से जताई गई
ख़बर किसे थी ये सब ऊपरी दिखावा था
सवर्ण जो था वो कुछ और भी महान बना
कठिन था वक़्त बहुत मार्क्सवादियों के लिए
खटक रहे थे वो हिंदुत्व की निगाहों में
उदारता का सुनहरा कवच पहन कर भी
बिछा रहा था समय जातिवाद राहों में
तरस रहा था मुसलमाँ तसल्लियों के लिए
मगर था शह्र मेरा मुक्त वारदातों से
गिरह सशक्त थी आपस में भाईचारे की
लहू के दीप थे रौशन शरीर के भीतर
फटी-फटी सी थीं आँखें समय के धारे की
भजन थे हाथ मिलते नबी की नातों से
शहर में जितने थे हिन्दू सनातनी थे सभी
कहीं भी आर्यसमाजी वितंडावाद न था
सभी के मन में था वर्चस्व शांत गंगा का
कहीं भी खून-खराबा न था, फ़साद न था
विचारवान थे, संकल्प के धनि थे सभी
मैं छोड़ आया हूँ बचपन उसी फ़िज़ा में कहीं
मेरी धमनियों में बहता है रक्त गंगा का
नबी ने पायी थी भारत से ईश्वरत्व की गंध
मेरी नज़र में है इस्लाम भक्त गंगा का
अगर न होती ये गंगा, तो मैं था कुछ भी नहीं
गंगा बीच से काटती है
मेरे समूचे शहर को
और मैं गंगा को उतार लेता हूँ
अपने अन्तर में बीचों-बीच.
शहर का पूरा अस्तित्व
बँट गया है दो टुकड़ों में
जिसे जोड़ती हैं पानी में तैरती नौकाएं
बाढ़ और सूखे में गंगा एक सी नहीं रहती.
और शहर भी गंगा के सिकुड़ने और फैलने से
हो जाता है फ़ालिज-ग्रस्त.
बचपन में पहली बार
जब मैंने होश की आंखों से गंगा को देखा था
और उस तक पहुँचने के लिए
गिनी थीं अनगिनत सीढियां
मुझे लगा था
कि गंगा भी मेरी माँ कि तरह बेजुबान है
उसकी आंखों में भी डबडबाती है एक कहानी
और तैरती है एक कविता
जिससे शायद वह स्वयं भी अनजान है.
बात उस समय की है
जब गंगा कुतर रही थी,
फांक और चबा रही थी
मेरी वह पाठशाला
जो पत्थरों से निर्मित थी
और जिसमें मैं पढ़ता था.
गंगा क्यों कर रही थी ऐसा
मैं नहीं समझ पाया था
और आज ! जब मैं पाठशाला का
वहाँ निशाँ भ नहीं पाटा,
केवल गंगा को देखता हूँ बहते
मुझे लगता है कि मेरी माँ भी
गंगा की तरह बहुत भूखी थी.
उसे भी फांकने और चबाने पड़े थे
पत्थर, जीवन भर.
और वे पत्थर उस पाठशाला के थे
जो हुई थी निर्मित, स्वयं उसी के हाथों से.
कहते हैं कि पानी की चोट से घिस कर
चट्टानें बन जाती हैं महादेव.
गंगा निकलती है महादेव के अन्तर से
और गंगा के भीतर से निकलते हैं,
कितने ही महादेव.
फिर भी यह गंगा महादेव की जननी नहीं है !
ऐसा क्यों है ?
क्या मैं अपनी माँ के माँ होने को नकार दूँ ?
मेरे शरीर में दौड़ता है मेरी माँ का रक्त
और गंगा जो मेरी रग-रग में समाई है
मेरा अपना रक्त बनकर
उसका रंग और रूप और गुण
मेरी माँ के रक्त से अलग नहीं है.
और इस रक्त की चोट से -
जन्म लेते हैं मेरे शरीर के भीतर
कितने ही महादेव !
इनसे मिति है मुझे शक्ति
जीवित रहने की
गंगा की तरह सहज भाव से बहने की.
वैसे तो मेरी माँ अभी जीवित है
पर जब वह शरीर छोड़ देगी
तब भी जीवित रहेगी -
मेरे रक्त में, मेरी रगों में
और मेरे शरीर के भीतर जन्मे महादेवों की शक्ति में.
मैं अपनी माँ को गंगा से अलग करके कैसे देखूं ?
जबकि दोनों ही मेरे शरीर में एकमेक हैं
जबकि दोनों ही मेरी आत्मा हैं,
मेरा विवेक हैं.
मैं मुसलमान हूँ या हिंदू या सिख
या रखता हूँ किसी अन्य धर्म में विशवास
गंगा यह प्रश्न मुझसे कभी नहीं करती.
मैंने मुहर्रम में प्रतेक वर्ष
विसर्जित किए हैं कितने ही ताज़िये
इसी गंगा में
और हर ताज़िये के साथ मैंने विसर्जित किए हैं
लोगों की मन्नतों मुरादों के हजारों धागे
ताज़िये पर चढाये गए गुलाब और बेले के हजारों फूल
गंगा मेरे लिए पवित्र है - कर्बला की तरह
और यह कर्बला, एक तीर्थ-स्थल है
इसलिए मैंने अपनी यह वसीयत
हर समझदार व्यक्ति की डायरी में दर्ज करा दी है
कि मेरी कब्र में कर्बला की मिटटी के साथ-साथ
थोड़ा सा गंगा जल ज़रूर रख दिया जाय.
मेरे देश के लोग शायद यह नहीं जानते
कि गंगा नहीं है किसी ख़ास मज़हब की मीरास
कि वह भरती है सबमें एक समता का एहसास
और अगर वे जानते तो आज होता
मेरे समूचे देश का एक अखंड अस्तित्व.
गंगा को अन्तर के बीचों-बीच उतार पाना
नहीं है आसान
गंगा है मेरे देश का संविधान !
और मेरे देश से अलग नहीं है मेरा शहर
इस लिए मेरे शहर का संविधान भी गंगा है.
और यह गंगा सिखाती है आज़ादी का अर्थ
जुटाती है छोटे-बड़े आसरे
माँ ने भी बताया था मुझको,
जब मैं बहुत छोटा था
आज़ादी का मतलब
और मैंने लगाए थे आज़ादी के पक्ष में नारे !
गांधी और नेहरू
बन गए थे मेरे लिए आज़ादी का पर्याय
और मैं देखने लगा था उनमें
गंगा का विस्तार और माँ की ममता.
पर आज ! शायद लोग भूल गए हैं पढ़ना
गंगा के वक्ष पर लिखी भाषा
और यह भाषा मेरे बचपन में जैसी थी
आज भी है, ज्यों-की-त्यों, वैसी ही
माँ और गंगा की भाषा में
आज भी, नहीं कर पाता मैं कोई अन्तर.
मिला है मुझको यही संस्कार भाषा का
ये घर में खुसरो के आई थी हिन्दवी बनकर
कबीर ने इसी भाषा को 'बहता नीर' कहा
जवान ये हुई ग़ालिब की शायरी बनकर
विपन्न है वो, न पाये जो प्यार भाषा का
मैं कर रहा हूँ अलीगढ में जबसे अध्यापन
अतीत मेरा, मेरे साथ-साथ रहता है
शहर ये मेरे शहर से अलग-थलग क्यों है ?
यहाँ के लोगों की अपनी विचित्र माया है
मैं कर न पाया कभी उसमें प्यार का दर्शन
यहीं की धरती ने मुझसे गुलाब छीन लिया
छुपे थे साज़िशों के घोसले गुफाओं में
उफनती आहटें, संकेत दे रही थीं, मगर
मैं खो गया था कहीं रेशमी हवाओं में
झुलसती धूप ने मौसम का ख्वाब छीन लिया
मदिर सुगंधों की शहनाइयों ने दम तोड़ा
पड़ी थी कोने में जाड़े की धूप की खुरचन
दिवस की घास से लिपटी थी बूँद शबनम की
छुपी थी जिसमें अमावस की सुगबुगी धड़कन
बनाके कब्र हवाओं ने हर भरम तोड़ा
लखनऊ में एक कब्र है
लखनऊ में और भी कई एक कब्रें हैं,
लखनऊ में जगह-जगह
क़ब्रों के कई-कई बाग़ हैं, बाडियाँ हैं ,
मगर वह जो एक कब्र है,
भीड़ में रहकर भी, भीड़ से अलग,
माथे पर बिना किसी तनाव के
केवल मुस्कुराती,
निष्प्राण होने की तमाम संभावनाओं से -
बचती-बचाती,
लखनऊ को शांत आंखों से निहारती,
वह किसी नवाब की कब्र नहीं है.
उसपर घोडों के खुरों की टापों का
कोई निशान नहीं है.
उसपर लखनऊ में आए, रूमानी भूकम्पों,
राजनीतिक-गैर-राजनीतिक सैलाबों
और ज़मीन में धंसी-धंसी - हुक्मनामा जारी करती
सामंती मेहराबों का भी कोई निशान नहीं है.
उसपर खुदी हैं -
हँसी के वैदिक मंत्रों की गुलाबी ऋचाएं
आंसुओं की श्वेताम्बरी -
जिब्रईली गर्माहट से लबरेज़ आयतें
उसपर खुदे हैं - बबूल की झाडियों के बीच
अपनी पूरी ताज़गी के साथ खिलखिलाते
दो खूबसूरत फूल,
बहत्तर घंटे का कोमा,
आक्सीजन का सिलेंडर,
स्टैंड पर उलटी लटकी,
बूँद-बूँद शरीर में दाखिल होती,खून की बोतल.
उसपर खुदे हैं -
अनाडी डाक्टरों की अंधी समझ से जन्मे
दवाओं के अधकचरे नुस्खे,
प्रथम श्रेणी के ढेर-सारे प्रमाण-पत्रों के बीच
हठधर्मी से नत्थी अस्थायी नियुक्तियां.
और करीबी रिश्तेदारों'
मित्रों और प्रियजनों की ऊब
और उस ऊब के साथ छटपटाते हालात.
आप अगर लखनऊ की उस कब्र को देखेंगे
ततो न आपके होंठ हिलेंगे
न आँखें छाल्केंगी, न पलकें भीगेंगी,
बस आप एक तक देखते रहेंगे उसे -
मौन ! स्तब्ध !
शायद इसलिए कि उस कब्र से आपका गहरा रिश्ता है,
शायद इसलिए भी कि वैसी ही बहुत सी कब्रें
कहीं आपके भीतर जी रही हैं.
और आप ! उन क़ब्रों की बारूदी सुरंगों पर खड़े -
अपने फालिजग्रस्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
मैं अगर कहूँ भी
तो आप विशवास नहीं करेंगे.
और अगर आपने विशवास कर भी लिया
तो किसी से कहते डरेंगे.
सच मानिए
पहले वह कब्र मेरे अपने घर में थी
और मेरा घर,
और घर के लोग
लकड़ी के तख्तों के नीचे, बहुत नीचे उतर कर
ठहाके लगाते थे
और आपस में मिलकर गाते थे सूरदास का भजन-
"प्रभू जी मोरे अवगुन चित न धरो"
आपने भी यह भजन गाया होगा
गुनगुनाये होंगे इसके एक-एक बोल
इस तथ्य से बेखबर रहकर
कि आपके घरों में भी बहुत सारी कब्रें हैं
और आपके घर भी
इन्हीं क़ब्रों के भीतर कहीं हँसते खेलते हैं,
और थकन उतारने के लिए
गाने लगते हैं सूरदास का भजन.
अगर आप लखनऊ गए हैं
तो आपने देखा होगा
कि लखनऊ में क़ब्रों की चीखती-उजाड़ जिंदगी को
चूने और सुर्खी की तरह आपस में मिलाकर
सरिया और सीमेंट की मदद से
बहुत ऊंचा उठाकर,
सरकारी कार्यालयों में तब्दील कर दिया गया है.
और लखनऊ की इन क़ब्रों के मुर्दे
भूरी-बादामी फाइलों के बीच नत्थी
एक मेज़ से दूसरी मेज़ तक चुप-चाप दौड़ते हैं.
और अपने लावारिस होने का मातम किए बगैर
बेदर्दी से एक-दूसरे पर लुढ़का दिए जाते हैं.
पर लखनऊ में वह जो एक कब्र है
जो कभी मेरे घर में थी
और जिसके भीतर मेरा घर लगाता था ठहाके
चहारबाग से जाने वाले सभी रास्ते
और उन रास्तों पर चलने वाले सभी लोग
उस कब्र से होकर गुज़रते हैं
कुछ आगे बढ़ जाते हैं
कुछ रुकते हैं, ठहरते हैं
और अपनी आंखों में उगे अग्निमंत्रों को
अंधेरों के बारूदखाने में फेक कर
किसी धमाके की प्रतीक्षा करते हैं.
आपने कई वर्षों से देखा होगा
कि आप जब आते हैं 'ईद' पर मेरे घर
तो न मैं मिलता हूँ , न मेरे बच्चे
बस एक ताला लटकता रहता है चुप-चाप !
आपने अगर लखनऊ की वह कब्र देखी होती
तो आप जानते -
कि उस कब्र के इर्द-गिर्द बैठने का नाम 'ईद' है
और यह 'ईद' सिर्फ़ लखनऊ में हो सकती है.
मैं अबतक पढ़ चुका हूँ 'ईद' की ढेर-सारी 'नमाजें'
उसी कब्र पर.
मैं नहीं जनता कि 'शरीअत' की दृष्टि में
नमाज़ का अर्थ क्या है ?
हो सकता है कि लोग मुझे काफिर समझते हों
मेरी नमाजें तो घर बैठे भी हो जाती हैं
शर्त यह है कि मैं उस कब्र को
अपने भीतर कहीं ताज़ा रख सकूँ
और अपने आँगन के फूलों कि रंगत
और खुशबू और ताज़गी को
और भी जीवंत बना सकूँ.
ताकि लोग देख सकें -
इस खुशबू और ताजगी में
अतीत की ऊर्जा से जन्मा
वर्त्तमान का चमकदार चेहरा.
ताकि लोग जान सकें
कि वह दीवार जो गिर गई
उसकी छाया आजभी मौजूद है -
उसी तरह, वैसे ही.
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शुक्रवार, 27 जून 2008

पुरानी शराब / दाग़ देहलवी [ 1831-1905 ]

परिचय : नवाब मिर्ज़ा खान, जिन्हें उर्दू जगत 'दाग़ देहलवी' के नाम से जानता है, अदभुत प्रतिभा के कवि थे. दस वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था. 1865 में वे रामपूर चले गए जहाँ वे 24 वर्ष रहे.1891 में हैदराबाद आ गए. यहाँ आकर उन्हें अपूर्व ख्याति मिली. ग़ज़ल के शायर के रूप में वे विशेष चर्चित हुए. उनके कुछ शेर जनता की ज़बान पर आम थे. उदाहरण स्वरुप 'तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही/ तू नहीं और सही, और नहीं और सही,' अथवा 'उर्दू हैं जिसको कहते हमीं जानते हैं 'दाग़' / हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है.' दाग़ ने कुल सोलह हज़ार शेर लिखे. प्रसिद्ध गायक गुलाम अली और गायिका परवीन आबिद ने उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ और संगीत से सजाया.
पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
आफ़त की शोखियाँ हैं तुम्हारी निगाह में
महशर के फ़ितने खेलते हैं जल्वागाह में
वो दुश्मनी से देखते हैं, देखते तो हैं
मैं शाद हूँ, कि हूँ तो किसी की नीगाह में
आती है बात बात मुझे याद, बार बार
कहता हूँ दौड़ दौड़ के कासिद से राह में
इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस क़दर
जो टूट कर शरीक हूँ हाले-तबाह में
मुश्ताक़ इस अदा के बहोत दर्दमंद थे
ऐ ‘दाग़’ तुम तो बैठ गए एक आह में
[ 2 ]
बुताने-महवशां उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिसकी जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
हज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकतीं
बहोत अरमान ऐसे हैं कि दिल के दिल में रहते हैं
खुदा रक्खे मुहब्बत के लिए आबाद दोनों घर
मैं उनके दिल में रहता हूँ, वो मेरे दिल में रहते हैं
ज़मीं पर पाँव नखवत से नहीं रखते परी-पैकर
ये गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल में रहते हैं
कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं.
[ 3 ]
काबे की है हवस कभी कूए-बुताँ की है
मुझको ख़बर नहीं मेरी मिटटी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज़्ज़ते-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नये आसमां की है
हसरत बरस रही है यूँ मेरे मज़ार से
कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है
क़ासिद की गुफ्तुगू से तसल्ली हो किस तरह
छुपती नहीं वो बात, जो तेरी ज़बां की है
सुनकर मेरा फ़सानए-ग़म उसने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही खूबी ज़बां की है
क्योंकर न आए खुल्द से आदम ज़मीन पर
मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है
[ 4 ]
खातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया
दिल लेके मुफ़्त, कहते हैं कुछ काम का नहीं
उलटी शिकायतें रहीं, एहसान तो गया
अफ़्शाए-राज़े-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
देखा है बुतकदे में जो ऐ शैख़ कुछ न कुछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया
डरता हूँ देख कर दिले-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यों न हो मेहमान तो गया
गो नामाबर से खुश न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया
होशो-हवासो-ताबो-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामन तो गया
[ 5 ]
ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा
तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परीशान रहा करती है
किसके उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक्त में आना तेरा
दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं ये फरमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा
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